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________________ स्या. २० टीका व हि. वि० अथ "द्रव्याऽसमवायिकारणीभूतसंयोगनाशेन पूर्वपटनाशोत्तरमेवोत्तरपटोत्पादः । न चैकैकतन्तुसंयोगे द्वितन्तुकादेनाशे त्रितन्तुकाल्पत्तिः. पुनरेकैकतन्तुवियोगे त्रितन्तु कादिनाशे द्वितन्नु कानुत्पत्तिरिति अल्पनागौरमाद् द्वितन्तुकपटादेरेव तन्त्वन्तरसंयोगेन त्रितन्तुककादिपटोत्पादकत्वमिति वाच्यम्, द्वितन्तुकादिक्रमेणोत्पन्नचतुरादितन्तुकयरस्य द्वितन्तुकाऽसमवायिकारणसंयोगनाशाद् द्वितन्तुकादिनाशक्रमेण नाशः, अन्तरा पुनर्वितन्तुकादिक्रमेणोत्पत्तिरिति कल्पनागौरवसाम्यान पटादिजनकविजातीयसंयोगं प्रति तन्तुत्वादिना हेतुत्वाच्च", इति चेत् ! इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-अणुपरिणामवादी को प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमाय मान्य नहीं है, अन्त्यावयवीपटादि से स्वपडपट, महापट आदि की उत्पत्ति होने से 'अन्न्यावयवी से द्रव्यान्तर को उत्पत्ति नहीं होती है यह नियम अमान्य है । 'पट में पटान्तर की उत्पत्ति मानने पर 'पटे पट' इस प्रतीति को आपत्ति होगी' यह शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पटत्वरूप से पट की आधारता स्वीकार न करने के कारण उक्त प्रतीति की आपत्ति का अवसर ही दुष्प्राप्य है। [पूर्वद्रव्य के नाश होने पर हो उत्तरद्रव्य की उत्पत्ति हो सकती है -पूर्वपक्ष] इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि -"द्रव्य के असमयायिकारणभूतसंयोग के नाश से द्रव्य का नाश होता है । पट का असमवायिकारण होता है तन्तुओं का संयोग; अतः तन्तुसंयोग का नाश होने पर पूर्वपट का नाश होता है और उसके बाद अगले पट की उत्पत्ति होती है। पूर्वपट के रहसे नये पट की उत्पत्ति नहीं होतो, यह वस्तु स्थिति है। अब यदि अणुओं का हो तन्तु आदि के रूप में परिणाम माना जायगा तब तन्तुस्वरूप परिणाम के रहते पटात्मकपरिणाम की उत्पत्ति न हो सकेगी, मत:-'अणुओं का ही विभिन्न द्रव्यो के रूप में परिणमन होता है किसी नये अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है'-यह कहना उचित नहीं है। इस पर यदि यह शंका की जाय कि-"पूर्यपट का नाश होने के बाद दो नये पट की उत्पति होती है' यह मानना अयुक्त है; क्योंकि पंसा मानने पर द्वितन्तुक-दो तन्तुओं से उत्पन्न-पट में एक नये सन्तु का संयोजन करने पर जो त्रितन्तुक पटकी उत्पत्ति होती है उसके पूर्व द्वितन्तुक पट का नाश मानना होगा, और उस नये तन्तु के अलग होने पर वितन्तुकपट का नाश होने के बाद पुनः द्वितन्तुक पर को उत्पति माननी होगी. अतः इस कल्पना में गौर है, इस लिये इसकी अपेक्षा यह कल्पना करने में लाधव है कि 'नये तन्तु का संयोग होने पर द्वितन्तुक पट से ही त्रितन्तुक पट की उत्पत्ति होती है, क्योंकि पेसा मानने पर त्रितन्तुकपट की उत्पत्ति के पूर्व द्वितन्तुक पट का नाश तथा तीसरे तन्तु के अलग होने पर पुनः द्वितन्तुकपट को उत्पत्ति ये दोनों बातें मानने की आवश्यकता नहीं रहतो" तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि इस कल्पना में भी पर्याप्त गौरव है, जैसे द्वितन्तुक, त्रितन्तुक आदि के क्रम से जब चतुस्तन्तुक आदि पट की उत्पति होगी, तब द्वितन्तुक
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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