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शास्मयासिमुनय-स्तनक १ हो. ५८ महतेमुभम् तदात्मकत्वमानते संस्थानादिविलक्षणा |
यपेयमस्ति भूतानां तथा साऽपि अर्थ न घेत् । ॥५०॥ तदात्मकत्यभानषेविर्गडकणिक्कादिवष्यसंघातात्मकमानत्वे सति, संस्थानादिना 'आदिसम्यात् परिमाणादिग्रह, विलक्षणा=विभिन्नसवित्तिसंवेधा, यवेयं साधकानां भिन्नस्वभावताऽस्ति तथा भूतानां भूतफार्याणां देहघटादिध्यक्तोनां, 'साऽपि चैतन्पोपादानव-अवपादानत्वलक्षणा विभिनवभावताऽपि ध न ? अनोत्तरम् इति चेत् ! नैतवाच्यम्, व्यक्तिमावत इत्यस्य हि स्वरूपभेदाऽप्रयोज्यत्वमर्थः, तत्स्वभावाकान्त. व्यक्तिस्तु मध्यापारादिकारणविशेपसमुस्पाधैव, अतो नाकस्मिकत्वम् अविशेषो या सब स्वभिमतथ्यक्तिविशेषस्यानुत्पत्तिरेच ॥५४॥ से कार्य में उत्कर्ष हो सकता है, पर विजातीयकारण के बिना विजातीयकार्य को जस्पति नही हो सकती । इपिश्यादिगुणों का संघात होने पर कारण उत्कृष्ट हो जाता है, मतः लाहह में इयि चादि प्रत्येक के रखदीय मावि से उत्कृष्ट रसवोर्य मावि कार्य की उत्पत्ति हो जाती है पर शरीर की पाल ससे भिन्न है, शारीर में तो पापिल मणकार्य
पदीय परसाद, मो शरीर के उपायक प्रत्येक का कार्य नहीं है। मत स विलक्षणकार्य के मनुष से आत्मारूप विलक्षणकारण की कल्पना मायरषको ६७||
[संस्थान आदि के मैद से भी भिन्नस्वभावता का असम्भव कारिका ५८ में वह शखा की गयी है कि-"हषि गुरु बाहिर निमण से बनने पाके बाह आदि विभिन्न प्रकार के खाद्यपदार्थ यविधि, गुज भाविरूप ही है, फिर भी उनके संस्थान, नाप, तौल भादि भिन्न होते हैं, जिनके कारण उनमें विभिन्नप्रकार को प्रती. तियों से मिलस्वभाषता सिह होती है।तो जैसे मूल भूतों के समान होने पर भी विभिन्न माधों में भिन्नस्वभावता होती है, उसी प्रकार शरीर, घट आदि भूतकार्यों में बैतन्योपानानत्व और चैतम्यापाबामवरूप भिमनस्वभावता पयो भी हो सकती ! मर्यात् शारीर और घर के मूल भूत भले समान हो, पर उनके आकार में भिन्नता तो है, तो जैसे भाकार में मेव इसी प्रकार उनके स्वभाव में भी पह मे को नहीं हो समता कि बेहास्मकसंधान सन्य का उपावान हो, उसमें चैतन्य की मभिव्यक्ति हो, और महाविकपसंघात चैतम्य का उपादाम न हो, उसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति न हो !"
कारिका में इस शंका के उसर का भी 'चेत्' संकेत कर दिया है, जो इस प्रकार है-पूर्व कारिका (१७) में विभिन्नखाधकों की सिम्मस्वभापता को यतिमात्रता' या पद से स्यक्तिमेवमात्रमयुक्त बताया गया है, जिससे थापावतः यह अर्थ प्रतीत होता है कि बाघों की भिन्न स्वभापता उनके उत्पावक हषि, गुड भाषि के केवल व्यक्तिगत मेह के कारण, मग्य किसी हेतु के कारण नहीं है। पर पास या हो । यो 'व्यक्तिमानता' का 'मूलकारणों के व्यक्तिगतमेव से प्रयोक्य पेसा मर्थ नहीं है, अपितु 'साकपमेद से मानयोग्य मय है, जिसका तात्पर्य यह है कि खाधकों की भिमस्वभावता