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________________ १७ m AvwwmaNAA.... स्वा० का . कार्यभेवावेष स्वभावभेदो भविष्यति, इत्यापरते भूखम् - इपिप्रकणिकादिष्यसंघातलाम्यपि । यथा भिन्नस्वभावानि सायकानि सपेति चेत् । ॥५६॥ इविघुतम् , आविचमारचातुर्मासकादिपरिग्रहः, तत्संघानमान्यपि साधकानि, पपा समीर्यपिपाककार्य मेला हविरादिभिन्नस्राभावानि, तपा भूतसंपातमाग्यपि शाहीराणि चैतन्य कार्यभेदाद घटादिभ्यो मिन्नस्वभावान्युपपत्स्यन्ते । अब कार्य मेवे स्वमाषभेदः, स्वभावमेवे व कार्यभेत्' इत्यन्योन्याश्रय, इति दोषे सत्येव कार्यमेवासिर्वि दोषान्तरमाइ–ति वेद ? 'नैतदेवम्' इति शेषः ॥५६॥ सूकम्-व्यकिमानत एषां ननु मिम्नस्वमावता । रसवीर्यविपाकादिकार्यमेदो न विपते ||५|| यत पप = पापकाना, ननु इत्याक्षेपे, भिन्नस्त्रमावता व्यक्तिमानत एसव्यकिभेदमाधापीनेव । मात्रपदप्रयोमनमाइ रसवीर्यविपाकादिकायमेदों. रविशंसदिकार्यरसवीर्यविषाकादिविलक्षणहेतुत्वं न विद्यते । अयं भावः कारणोत्कर्षात् कार्योस्कऽपि कार्यभात्यस्य कारणवैजात्याधीनत्वाद खाधकधान्तनासंतभूतकार्यात सातस्तकार्योस्कर्षेऽपि धैतम्यलक्षण विलक्षणं कार्य पिलमणमात्मानमेव हेतुमामिपतीति ॥५७|| प्रयल रूप गुण से उत्पन्न होती है, शरीर भोका के उत्तप्रकार के नमामिणों से नाही उत्पन्न होता, भतः उसे उसके मरएगुण से उत्पन्न मामना भाषश्यक है ॥१५॥ [कार्यभेद से स्वभावमेव की आशंका ५६वीं कारिका में कार्यमेव से स्थमाघमेद की आशंका की गयी है. इस प्रकार है"जिस प्रकार वि-पृत, गुब. कणिक्कमतुर्मानक मावि के संघात से उत्पन्न होने वाले छ मादि पदार्थ रस, वीर्यविपाककप कार्य के मेष से प्रापेक घत मादि से मिन्न स्वमाष के होते है, उसी प्रकार भूतों के संघात से उत्पन्न होने वाले बारीर भी घटादि से भिन्मस्वभाव के गे; गोंकि शरीर का बैतम्याप कार्य प्रदादि के कार्य से भिन्न है।" यपि इस माaar में कार्य मेष से स्वभाषमेह मौर स्वमाषमे से कार्यमे मामले में भम्पोम्पाभरारूप घोष स्पष्ट दै. तथापि अप्रिम कारिता बररा बताये जाने पावे कार्य की प्रसिदिप भन्य दोष का संकेत इस कारिका के 'इति चेत्' पोदारा किया गया है, जिससे उक्क मान्यता का निषेध विदित होता है॥३॥ स्वभावभेदप्रयोजक कार्यमेही मसिर सदर मावि वाघपदाथों में उसके उत्पाचक रबि, गुरु अादि प्रत्येक मोमिन्न स्वभावता धोती है, वह व्यक्किमेवमात्र के कारण है कि कार्य मेद के कारण, क्योकि लामावि में प्रत मावि प्रत्येक के रस, वीर्यविपाकरूप कार्य से विलक्षण रसबर्ष विपाक कप कार्य की उत्पादकता भप्रमाणिक है। कहने का आशय या कि कारण
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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