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सः १ इति चेत् ?
सूक्ष्म कर्त्रभाषा तथा देशकालभेदापयोगतः ।
न चासिदो भूतमात्रत्वे तदसम्भवात् ||५९ ॥
फलितमाह
कभाषात् खायकानामिव शरीरस्थातिरिक्तकर्मभावात्, तथा देशकालमेवादीनास् मादिनादिपरिग्रहः 'मयोगत: ' - अभावात् । न वाऽसिद्धमदः उक्तवचन, विश्वस्य भूतैकस्वभावत्थे, सम्भवात् कधसम्मत् ||५ ९ ||
भूतमार
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मूलम् तथा च भूतमात् न तत्संघातभेदयोः ।
भेदकाभावतो दो युक्तः, सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ २६०.
' तथा 'भावे च 'भूतमात्रत्वे' विश्वयभूतैस्वभावत्वेनेषां भूतानां संघात भेदयोः शरीरघटादिभेदयोः भेदकाभावतो मेदो न युक्तः । इति सम्यगु-उक्तनीस्या परमार्थविचारेण विचिन्त्यताम् = परामृश्यताम् ॥६०॥
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उनके मूलभूतों के स्वरूपमे के कारण नहीं है, क्योंकि सभी स्वाधकों के मूल हर्षि गुड आदि में स्वरूपभेद है ही नहीं, दवि, गुडन्य भावि रूप से सब का स्वरूप एक दी है, फिर भी उनके मिश्रण से भिन्नस्वभायों से युक्त नायकों की उत्पत्ति हल छिपे होती है कि उनके निर्माता निर्माणविधि आदि भिन्न है। अतः उनकी निम्नस्वभावता नमकारक दी है और न उनमें अविलक्षणता ही है किन्तु आर्याक के मतानुसार देव पट मावि के रूप में भिन्नस्वभाबोपेत व्यक्ति की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती ॥१५८ [मात्मा के अभाव में शरीरादि का भेद अघटित हैं। पूर्व कारिका में पाक के मत में घट आदि बिभिन्न व्यक्तियों को उत्पत्ति को दुर्घट बताया गया है । होता है कि ऐसा क्यों? क्यों चाक के मत में दे पठ मादि भिन्न व्यक्तियों की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? प्रस्तुत (५९) कारिका में इस मन का उतर दिया गया है, जो इस प्रकार है, -
जाचकों के समान शरीर का कोई अतिरिक निर्माता नहीं है । शरीर घट भाषि के देश और काल में तथा भट आदि में भी मेत्र नहीं है । एक ही घर में पकी समय दे पट मादि की उत्पत्ति होती है, एवं चाक के प्रत्यक्ष प्रभावकषावी होने से उसके मसमें अहमेद को सम्भावना ही नहीं हैं। शरीर के अतिरिक्त निर्माता भरि के आभाव की बात कही गयी. वह मसिद्ध नहीं है, क्योंकि वावकमत में जब पूरा विश्व केवल भूतात्मक ही है तो सब कुछ समान से है, उसमें कोई freter कर्ता कैसे हो सकता है ? अतः काकमल में शरीर के कर्ता गादि से शून्य होने की बात सर्वथा सुतिसंगत है ||१९||
उपर की कारिका में जो बात कही गयी, प्रस्तुत(६०) कारिका में उसका फखितार्थ बताया गया है। जो इस प्रकार है
मार.. २२