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________________ स्या० का टीका व हिं. वि० तदेवं ध्यानरूपमेव तपो ज्ञान-क्रियाभ्यामपृथग्भूनमपृथग्भूततत्तद्वयापारयोगि परमयोगाभिधमपवर्गहेसुरिति निव्यं ढम् । तत्र च धर्मपदशक्तिराप्तवाक्यादेव, स्वारसिकप्रयोगे लक्षणाऽनबकाशाद, अन्यथा विनिगमनाविरहात । 'देवाचदिौ धर्मजनकत्वेनैव धर्मपदप्रयोगो न तु स्वरसत' इति चेत् । तथाप्यत्र योगजादृष्टप्रयोजकतया धर्मपदप्रयोग इति न वैषम्यम् ॥२१॥ के समान है तथा श्रुत, मति, अवधि, और मनःपर्याय इन बार मानों के प्रकर्ष पर पहुंचने के याद प्रादुर्भूत होता है और जिसे 'प्रातिभधान' के नाम से व्यवस्त किया जाना है। पातञ्जलदर्शन में जिसे 'ऋतम्भरा प्रक्षा' कहा गया है बद जैनदर्शन का 'केवलशान" है, उससे संस्काराशय को वृद्धि होने को जो बात कही गई है वह ठोक नहीं है, क्यों कि संस्कार तहान का ही एक मेद है जो केवलज्ञान के मूलभूत मानावरण के क्षय से ही क्षीण हो जाता है। असम्प्रशात समाधि भी शुफालध्यान का 'अन्तिमपाद है और उसका काय वृत्तियों का निरोध नहीं है किन्तु भवोपग्राही संसार सम्पादक कर्मों का क्षय है। व्याम्याकार की दृष्टि में जैन शास्त्र से भिन्न सभी असर्वोक्त शास्त्र ज्वरपरघमनुष्यों के प्रलाप के समान है जो काकतालीय न्याय से किसी किसी बातों में सत्य उतर जाते हैं, पर सभी बातो में सत्य नहीं माने जा सकते। उक्त विचार के अनुसार यह सिद्ध है कि ध्यानस्वरूप तप ही मोक्ष का साधन है, और वह तप सान तथा क्रिया से पृथक् नहीं है, उनके व्यागरों में भी पार्थपय नहीं है, ध्यान के घटक शान और क्रिया दोनों का व्यापार एक ही है और वह है भधापप्राही कमों का क्षय । इस ध्यानात्मक तप का ही नाम है परमयोग-सर्वोत्कृष्ट योग। मोक्ष के साधमभूत इस तप में धर्म पद की शक्ति प्राप्तवाक्य से ही सिद्ध होती है, क्योंकि इसमें धर्म पद का स्वारसिक-अनादि काल से स्वाभाविक प्रयोग होता है, और जिस अर्थ में जिस पद का स्वारसिक प्रयोग होता है उसमें उस पद की शक्ति १. 'सर्बद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' तत्वार्थ १-३० और 'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम्' तत्वार्थ १०-१ । केवलज्ञान यह आत्मा का निरावरण ज्ञानस्वभाव है, और वह बोनो काल के समस्त अनन्त द्रव्य-पर्याय ओ विषय करता है। २. 'पृथक्कत्यवितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिषतिज्युपरतक्रियानिवृत्तीनि' तत्त्वार्थ ० ९-४१ । ३. काके उपस्थिते तारस्य पतनम्'-काकतालीयो न्यायः । इस न्याव का आशय यह है कि जैसे स्वाभाविक कारणों से तालफल के किसी अघश्यंभावी पतन के समय दैववश वहाँ काक के उपस्थित हो जाने पर सामान्य जनों द्वारा बह तालपतन पाक की उपस्थिति से जन्म मान लिया जाता है, पर वास्तव में तन्मूलक नहीं होता, क्योंकि अन्य तालपतन उसके अभाव में भी होते हैं, उमी प्रकार कोई भी कार्य अपनी सहज उत्पत्ति के समय दैववश उपस्थित होने वाले पदार्थ से असम्यग्दर्शी जनों द्वारा जन्य मान लिये जाने पर भी वस्तुतः तज्जन्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसी प्रकार से दूसरे कार्य अन्यथा भी उत्पन्न होता है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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