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शास्त्रमा समुरुपय गूढाशयः पृच्छति 'धर्म' इति - मूलम्- धर्मस्तदपि, चेत्सत्यं, कि न बन्धफलः स ? यत् ।
आशंसावर्जितोऽन्येऽपि किं नैव ? चेन्न यत्तथा ॥२२॥ सदपि-शुद्धतपोऽपि धर्मो- धर्मव्यवहारविषयः ? गृद्वाशय एत्रोत्तरयति-इति चेत् , सत्य-धर्मपदव्यवहारविषय एवेत्यर्थः । उद्घाटिताशयः पृच्छति-बन्धफलः कर्मबन्धहेतुः, सधर्मः, किं न भवति ?, धर्मव्यवहारविषयत्वं हि शुभवन्धहेतुत्वेन सहचरितमुपलब्धम् । अतो ज्ञानयोगेनापि धर्मेण सता बन्धफलेन भवितव्यमिनि परस्याशयः । व्यक्ताशय एव समाधत्ते-यत्-यस्माद्धे तो, स धर्मः, भाशंमार्जिनः, प्रसिद्धधर्मव्यापकधर्माभिधानमेतत; अन्यो हि धर्मो बन्धहेतुः, अन्यश्चानीदृशः, अतो न धर्मव्यवहारविषयत्वेन बन्धहेतुत्वमस्य, सहचारमात्रेण व्याप्त्यग्रहाद्, अन्यथा पार्थिवत्व-लोरलेख्यत्वयोरपि तद्ग्रहप्रसङ्गादित्याशयः । इदमेव व्यतिरेकाऽऽशङ्कानिरासेन दृढयति अन्येऽपि पुण्यलक्षणा धर्माः, एवम् प्रबन्धफलाः, किं न ? इति चेन् ? यन् यस्मादेतोः, तथा मासावर्जिता न, अवन्धहेतुत्वनियतधर्माभावाभिधानमेतत् । ही मानी जाती है, उसमें उस पद की लक्षणा नहीं होती। यदि स्वारसिक प्रयोग के विषय भूतअर्थ में भी पद की लक्षणा मानी जायगी तो शक्ति और लक्षणा की मान्यता में कोई चिनिगमना-पकता की साधिका युक्ति न रह जायगी, फलतः किस अर्थ में किस पद की शक्ति मानी जाय और किस अर्थ में किस पद की लक्षणा मानी जाय इस बात का निर्णय न हो सकेगा।
यदि यह कहा जाय कि-धर्म पद को शक्ति अनुष्ठानजन्य अतिशय में ही होती है जिसे पुण्य कहा जाता है, देवानआदि अनुष्ठान में धर्म पद का प्रयोग उस पुण्यास्मक धर्म का जनक होने के मासे ही होता है, स्वरसतः -स्वभावतः नहीं होता तो ध्यानात्मकतपरूपयोग के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि योग से उत्पन्न होने घाला अरष्ट हो वास्तव में धर्म है, उस धर्म का प्रयोजक होने से ही योग में धर्मपद का प्रयोग होता है । इसलिये स्वर्ग के साधन भूत शुभानुष्ठान और मोक्ष के साधनभूत तप की धर्मरूपता में-धर्मपदव्यवहारविषयता में कोई वैषम्य नहीं है. दोनों ही स्वभाव से अथवा धर्म का प्रयोजक होने से धर्मपद से व्यवाहत होते हैं ।
(शुद्ध तप भी धर्म है) भाशय को गूढ रस्त्रते हुये पूर्व पक्षकर्ता प्रभ करता है कि-क्या शुद्ध तप भी धर्म है? भाशय को गूढ रखते हुये ही उत्तरकर्ता उत्सर देता है-'हाँ शुद्ध तप भी सखमुख धर्म ही है।' अपना आशय प्रकट करते हुये पूर्व पक्षका पुनः प्रश्न करता है कि यदि शुद्ध तप भी धर्म है तो वह कर्मबन्धन का कारण क्यों नहीं होता! प्रश्न कर्ता का स्पष्ट आशय यह है कि मिसे धर्म कहा जाता है उसे तो शुभवन्ध का कारण होते देखा गया है; अतः यदि ध्यानयोग-शुद्धतप भी धर्म है तो उससे धन्धनरूप फल