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स्या० क० टीका व हिं. वि०
"ननु इदमयुक्तमुक्तम्, एकस्यैव चारित्रस्य सरागत्ववीतरागत्वाभ्यां शुभबन्धमोक्षोभयहेतुत्वसम्भवात् । अत एव पूर्वतपः - पूर्वसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं 'भगवत्याम्' उक्तम् । न च बन्धमोक्षजनकतावच्छेदक रूपविभेदाद् नोक्त दोष इति वाच्यम्, सरागत्ववीतरागत्यातिरिक्ततज्जनकतावच्छेदकरूपकल्पने मानाभावात् । कर्मक्षयोपशम-क्षयजन्यतावच्छे दकयोरेव तज्जनकतावच्छेदकत्वमिति चेद ? एवं सति शैलेसीसमयभाविन एव चारिrer मोक्षत्वपर्यवसाने ऋजुसूत्रनयाऽऽश्रवणप्रसङ्गादिति चेत् ?
का होना अनिवार्य हैं । उसरकर्त्ता अपना आशय व्यक्त करते हुये इस प्रश्न का यह उत्तर देता है कि शुद्ध तप धर्म होते हुये भी आश सावजित मोशाम्यफल की कामना से अकृत होने के कारण कर्मबन्ध का कारक नहीं होता । उत्तरकर्त्ता का अभिप्राय यह है कि शुद्धतप में हमें जिस रूप से बन्ध हेतुता प्रसिद्ध हैं उस रूपकी अपेक्षा व्यापक अतिप्रसक्त रूप का अभिधान है। आशंसायुक्त धर्म बन्धका हेतु होता है, यह हेतुता सामान्य धर्मस्वरूप से न होकर आशंसायुक्त धर्मस्वरूप से होती है । अतः केवल धर्मत्व उस रूप का व्यापक अतिप्रसक्त रूप है क्यों fa er भासा जितधर्म में भी है, अतः शुद्ध तप में धर्मत्व होने पर भी बन्धहेतुता की प्रसक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि धर्म में धर्मत्व इस सामान्य रूप से बन्धहेतुता नहीं है । धर्मre और बन्धहेतुता का सहचार आशंसायुक्त धर्म में अवश्य है, पर इस सहबार मात्र से यहां व्याप्ति नहीं सिद्ध हो सकती कि 'जो जो धर्म होता है वह सभी बन्ध का हेतु होता है। सहचार मात्र से यदि व्याप्ति मानी आयगी ता पार्थिवत्व में भी लोहलेस्यस्व की व्याप्ति माननी होगी । अर्थात् यह नियम स्वीकृत करना होगा कि 'जो भी पार्थिव पदार्थ होता है वह सब लोड से उत्किरण के लिये योग्य होता है' किन्तु यह नियम मान्य नहीं हो सकता क्यों कि वज्र पार्थिवपदार्थ होते हुये भी लोह से उत्किरण के लिये योग्य नहीं होता । ग्रन्थकार ने कारिका के अन्तिम भाग में व्यतिरेक की आशंका का निरास करते हुये इसी बातको दृढ किया है ।
व्यतिरेक की आशंका इस प्रकार होती है कि जैसे शुद्धतप धर्म होते हुये भी बन्धका अहेतु है उसी प्रकार अस्य पुण्यधर्म भी बन्ध के हेतु क्यों नहीं होते ? इसका उत्तर यह है कि अन्य पुण्यधर्म यतः आशंसावजित नहीं होते अतः वे बन्ध के अहेतु नहीं होते । अन्य पुण्यधर्मा में यह अबन्धहेतुता के व्यापकधर्म आश साहित्य के अभाव का कथन है । व्यापकाभाव के कथन से व्याभाव का बोध स्वाभाविक है। इस लिये आशंसाराहित्यरूप व्यापकधर्म का अभाव बना देने से अगन्धहेतुता रूप स्यात्यधर्म के अभाव - बन्धहेतुता का लाभ अनायास हो जाना है ।
(शुद्ध में केवल मोक्षजनकता का विधान असंगत - पूर्वपक्ष)
यहां पूर्वपक्ष इस प्रकार हो सकता है- 'शुद्धतप मोक्ष का ही हेतु है बन्ध का नहीं, पवं अन्य पुण्यधमं बन्ध के ही हेतु है, मोक्ष के नहीं' यह कहना असंगत है क्यों कि एक ही चारित्र रागयुक्त होने से स्वर्ग का तथा रामहीन होने से मोक्ष का