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शास्त्रवासिमुच्चय सत्यम्, तदुपगृहीतव्यवहाराश्रयणेनैवेत्थमभिधानात् । शुद्धर्जुसूत्रनयेन तु ज्ञानतपसोरन्यथासिद्धत्वं, तज्जन्यक्रियाया एवं मोक्षोपपत्तेः । पदाह भगवान् भदयाहुः"सद्दुजुसुआणं पुण निवाणं संजमो चेव' इति (आव. नि. गाथा ७८९) । हेतु हो सकता है। इसी लिये 'भावलोसूत्र' में सराग तप और सराग संयम को स्वर्ग का हेतु कहा गया
यदि यह कहा जाय कि "धारित्रनिष्ठबन्धजनकता' तथा 'मोक्ष जनकता' के अवच्छेदक रूपों के मेद होने से पक चारित्र में बन्ध और मोक्ष की अनकता मानने पर भी उक्त कथन में कोई असमति नहीं है, क्योंकि शुद्धतप-संयम 'बन्ध जनकता के अवच्छेदक रूप से शुन्य होने के कारण केवल मोक्ष का हो हेतु होता है, तथा अन्य पुण्यधर्म 'मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूप से शून्य, होने के कारण केवल बन्ध के ही हेतु होते हैं
तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सरागत्व यवं सोतगगत्व से भिन्न बन्धजनकता तथा मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूपों की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है, और • सरागत्व पच वीतरागत्व शुद्ध तप में भी सम्भव है फलतः पक ही शुद्ध तप में सराग होने से बन्धहेतुना एवं बीतराग होने से मोक्षहेतुता-इन दोनों के सम्भय होने से शुद्ध तप को केवल मोक्ष का ही हेतु कहना संगत नहों है।
यदि यह कहा आय कि-"चारित्र का उदय कर्मक्षयोपशम से भी होता है और कर्मक्षय से भी होता है, तो जिस रूप से चारिष कर्म-क्षयोपशम से उत्पन्न होता है उस रूप से घन शुभ बन्ध का तथा जिस रूप से वह कर्म क्षय से उत्पन्न होता है उस रूप से बह मोक्ष का हेतु होता है, इस प्रकार सरागन्य और वीनरागत्व से भिन्न बन्धजनकता और मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूपों के होने में कोई विवाद न होने से रूपमेद से पक ही चारित्र के बन्ध और मोक्ष का हेतु होने पर भी कर्मक्षयजन्य शुद्धतप को केवल मोक्ष का ही हेतु कहने में कोई अनौचित्य नहीं है".
तो इस कथन को स्वीकार करने पर मुमुक्षु के शैलेशो अवस्था यानी १४ वे गुण स्थानक के काल में जो अयोगीमवस्थापन्न चारित्रसम्पन्न होता है करल उसी चारित्र में मोक्ष की हेतुता का पर्यवसान होगा, अर्थात् वही चारित्र मोक्षका हेतु होगा और इस बातको स्वीकार करने के लिये ऋजुसूत्र नय को आश्रय करने की आपनि आएगी। प्राजुमुत्रनय मात्र धर्तमानमाही है इसलिये तत्काल कार्यकारी को हो कारण मानेगा । फलतः कालविलम्ब से कार्यकारी चारित्रादि कारण में मोक्ष के प्रति अहेतुना ग्राम होगी।
(अर्ध स्वीकार से पूर्व आपत्ति का समाधान-उत्तर पक्ष) इस पर टीकाकार का यह कहना है कि-शैलेशी अवस्था में होने वाले चारित्र में ही मोक्षदेतुता का पर्यवसान उचित ही है, क्यों कि शुद्धतष को जो मोक्ष का हेतु कहा गया है वह ऋजुसूचगर्भित व्यवहारनय की इग्नि से कहा कहा गया है। शुद्ध ऋजु. सच की रष्टि से शान और तप दोनों ही मोक्ष के प्रति अन्यथा सिद्ध हैं, मोक्ष का उदय तो जान और तप के परिपाक से होनेवाली 'क्रिया से ही सम्पन्न होता है। १- यह क्रिया मुमुक्षु के द्वारा ज्ञान कैवल्य के बल पर शैलेशी अवस्थार्य की जाती योगनिरोध की क्रिया, उसमें ही चतुर्थ शुक्लध्यान की क्रिया संभावित है।