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स्या० का टीका बहि. वि. ____ यद्वा आशमायाहित्यराति साध्या ना-मोक्षननपतावच्छेदकरूपभेद एवात्रोपवर्णितः । तथा 'अन्यः पुण्यलक्षणः' इत्पत्राऽन्यपदं च वैधार्थकम्, अतो न किठिचदनुपपन्नम् ।
परे तु 'तपस्त्व-चारित्रत्वाभ्यामेव मोक्षहेतुता, सङ्कोचे मानाभावात्, सरागताकालीनप्रशस्तसनादेव स्त्रोत्पत्तेः । वस्तुतः सगगतपसः स्वर्गहेतुत्वं “सविविशेषणे हि०" इति न्यायेन रागमात्र एव पर्यवस्यति' इत्याहुः ।
___ अपरे तु–'मोक्षोदेशेन क्रियमाणयोस्तपःसंयमयोर्मोक्षहेतुत्वमेव, स्वर्गस्य चानुदेश्यस्वाद न फलत्वम्, कर्मा शप्रतिबन्धाच न तदा मोक्षोत्पादः, ततो गत्यन्तरजनकाऽदृष्टाऽभावादर्थत एवं स्वोत्पत्तिः' इत्याहुः । ____ सर्व एवैते सदादेशाः, भगवदनुमतविचित्रनयाऽऽश्रितमहर्षिवचनानुयायित्वादित्यवसेयम् ॥२२॥
भगवान भद्रयाहु ने भी आवश्यक सूत्रकी नियुक्ति में यह कहते हुये कि "शब्दनय और ऋजुसूत्रनय के अनुसार निर्वाण ही संयम है"- इसी बात की पुष्टि की है। ___ अथवा आशंसासाहित्य एवं आशंसाराहित्य विशेषणों द्वारा बन्ध तथा मोक्ष की कारणता के अवच्छेदक रूप मेदों का ही वर्णन इस २२ वो कारिका में किया गया है। बीसवी कारिका में पुण्यलक्षण धर्म का जो 'अन्य' पद से निवेश किया गया है उसका तात्पर्य उस धर्म को मोक्षजनक धर्म से भिन्न बताने में नहीं है किन्तु विधर्मा-विलक्षण बताने में है, क्योंकि 'अन्यः पुण्यलक्षणः' इस घाक्य में प्रयुक्त 'अन्य' शब्द मेदा र्थक न हो कर वैधार्थक है, और यह वैधयं आशंलारादित्य रुप ही है इसलिये तप को ही आश सायुक्ततप के रूप में स्वर्ग का तथा आश साहीनतप के रुप में मोक्ष का कारण मानने में कोइ अनुपपत्ति नहीं है।
दसरे विद्वानों का मत है कि-तप और चारित्र तपस्त्व और चारित्रत्वरूप से हो मोक्ष के कारण है, संकोम में अर्थात् तपस्त्व और चारित्रत्व से व्याप्य रूप से उन्हें मोक्ष का कारण मानने में कोइ प्रमाण नहीं है । स्वर्ग की उत्पत्ति तप और चारित्र से म हो कर सरागता काल में होने वाले प्रशस्तसा प्रशस्तराग यानी प्रशस्तकर्मानुष्ठान के ममत्वे से ही सम्पन्न होती है। वस्तुगत्या 'सरागतप स्वर्ग का हेतु है' इस विधान में 'सविशेषणे हि.' न्याय से स्वर्गहेतुता का पर्यवसान राग में होता है। न्याय यह है-'सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंकामतः अर्थात् कोइ विधि या निषेध विशेषण युक्त किसी विशेष्य में प्रतिपादित किया जाता है तब वह विधि या निषेध विशेषण मात्र में लागू होता है। जैसे कि कहा गया-'अनी तिमयव्यापार दुःन का कारण है, यहां दुःख को कारणता ऐसे तो अनीतिमयतायुक्त व्यापार में बताई गई, किन्तु फलित यह है कि दुःखकारणता विशेषण 'अनीतिमयता' में हैं। इसी प्रकार यहां सराग
शा, वा. १२