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________________ शास्त्रवासिमुच्चय उक्तधर्मद्वैविध्यं शब्दान्तरेण तन्त्रान्तरेऽपि सम्मतमित्याइ-'भोग' इतिमूलम् –भोगमुक्ति फलो धर्मः स प्रवृत्तीतरात्मकः । सम्यमिथ्यादिरूपश्च गीतस्तन्त्रान्तरेष्वपि ।।२३।। भोगफल एको धर्म:, अन्यश्च मुक्तिफल इति शैवाः । प्रवृत्यात्मक पकः, निवृत्त्यात्मकश्चान्य इति त्रैविधवृद्धाः । सम्यग्रुप एकः मिथ्यारूपश्चान्य इति शाक्यविशेषाः । आदिपदाद हेयोपादेयाऽभ्युदयनिःश्रेयसपरिग्रहः । एवं तन्त्रान्तरेषु'-जैनातिरिक्तदर्शनेध्वपि, अयं द्विभेद उक्तः । तप में स्वर्गहेतुता कहने का तात्पर्य यह फलित होता है कि स्वर्गहेतुता प्रशस्तराग में है। सपस्त्वेन तप तो कर्मक्षय का हेतु है। अन्य मनीषियों का मत है कि ओ तप और संथम मोक्ष के उद्देश्य से किये जाते है मोक्ष के ही हेतु होते हैं उद्देश्य न होने से स्वर्ग उनका फल नहीं होता, किन्तु वे ही तप और संयम जब मोक्ष के उद्देश्य से सम्पादित नहीं होस तप उनस मोक्ष की उत्पत्ति नहीं होती, चूकि भोगार्थ बचे हुए कर्म के अंश से मोक्ष का प्रतिबन्ध हो जो जाता है। प्रश्न हो सकता है कि-क्या मोक्ष को उद्दिष्ट न करके किये गये तप और संयम निरर्थक ही होते हैं ? उत्तर यह है कि नहीं-निरर्थक नहीं होते, किन्तु स्वर्ग से भिन्न किसी दूसरी मति का जनक अदृष्ट न होने से किसी अन्य गति की उत्पत्ति न हो कर उनसे स्वर्ग की ही उत्पत्ति होती है, क्योंकि मुमुक्षु के पवित्र जीवन में स्वर्ग के जनक अहष्ट की ही सामग्री सदैव सन्निहित रहती है। इस सन्दर्भ में यह शासथ्य है कि तप और संयम से स्वर्ग एवं मोक्ष की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो मत प्रस्तुत किये गये है वे सब भगवान महावीर को अनुमत विचित्रनयों पर माश्रित्त' महर्षि-वचनों के अनुगामी होने से सदावेश-सम्यग् उपदेश रूप हैं ॥२२॥ २३ वी कारिका से यह बात बतायी गयी है कि-धर्म के जो यो मेद कहे गये हैं, वे शब्दान्तर से अन्य शास्त्रों में भी स्वीकृत है। जैसे शैवों का यह मस है कि धर्म दो है-पक भोगफलक और दुसरा मोक्षफलक । वेदों के विशिष्ट विद्वानों का मत है कि धर्म के दो रूप है-एक प्रवृत्तिरूप और दूसरा निवृत्तिरूप । बौद्धों का भी यह मस है कि धर्म के दो रूप है एक सम्यगुरूप और दूसरा मिथ्यारूप । कारिका के तीसरे पाद में मिथ्या शब्प के उत्तर जो 'आदि' पद सुन पडता है उससे हेय उपादेय तथा अभ्युदय और निःश्रेयस का ग्रहण-अभिमत हैं। उसके अनुसार धर्म के बारे में यह ज्ञात होता है कि धर्म दो है एक हेय के त्यागरूप और दूसरा उपादेय के पादररूप । अथवा पक सभ्युदय का साधन और दुसरा निःश्रेयस का साधन | इस प्रकार जैन शास्त्र से भिन्न दूसरे दर्शनशास्त्रों में भी धर्म के दो रूप बताये गये हैं ॥२३॥ ___ आगम के प्रामाण्य में जिन्हें विप्रतिपत्ति है, उन्हें पागम से संज्ञानयोग-सम्यग ज्ञानरूप योग को प्रामाणिकता नहीं बतायी जा सकती, अतः उन्हे २४ वी कारिका
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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