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________________ २७८ ... शास्त्रषासमुपय-मतबक कोक ॥ वस्तुतः स्पष्टताख्यपिपता प्रत्यक्षत्यम, अत एव 'पर्वतो वहिमान्' इत्यत्र पर्वतांशेऽपि स्पष्टतया प्रत्यक्षमिति 'वहिं न साक्षात्करोमिनियन पर्वतं न साक्षास्करोमि' इति न धीः । अत एव प 'स्पष्ट प्रत्यक्षम् प्रमाणनय० २.२। इनि प्रत्यक्षलक्षणं मूत्रितम् । विवेचितं चे ज्ञानाणवे । अतश्च स्वसिदितस्य प्रमाणान्तरवप्रसनोऽप्यपास्तः । पर उक्त शामसम्यतानवच्छेद कतद्विषयवाय को ततिपयकप्रत्यक्षवरूप मानने पर उक्त मनुमिति महम् मश में भी प्रत्यक्षरूप न हो सका, क्योंकि उफत अनुमिति के प्रति 'महम् ममुकमान पायामुक सामग्रीमान्' पद परामर्श आई यग्यकन्य सा से भी कारण होता है अतः उक्त भनुमितिगत भई धिक्यात स्त्रावच्छिम्नशनकता के भाशयभूत उक्त परामानिमक पान से युक्त पुरुष में रहने बाहे उक्त परामर्शमकशान की जन्यता का अवच्छेत्रफ हो जाने से विपक्षितज्ञान की सभ्यता का अनववक न होने से मषिषयक प्रत्यक्षपका हो सकेगा।" इन दोनों शंका का यह उत्तर दिया जा सकता है कि शानजस्यतानबमोदक तदिपयकत्वरूप पियकमात्यक्षस्य के गर्भ में जो शामजन्यतावच्छदकत्र प्रविष्ट है वह हैश्यता विधेयता मानि विषयता का उपलशक है अतः प्रानजन्यतामवर एकत्व का अर्थ व्यविधेषताविमिनाय । फलतः वयं त्रा' रस प्रत्यक्ष में सहयता विप्रेयता मादि से भिन्न क्षेत्रवषिषयमा होने से और उस मनुमिति में उपता आदि से भिन्न भी महविषयता होने से उक्त प्रत्यक्ष में बेत्रावविषयकप्रत्यक्षस्य की मोर उक्त मनुमिति में महंविषयकप्रत्यक्षाव की गनुगपत्ति नहीं हो सकती। स्पष्टता नामक विषयता हा प्रत्यक्ष व है | सप बात तो यह है कि प्रत्यक्षाय न तो कोई जाति है और न मानसन्तानवरके. एकविषयकावरूप या उद्देश्यता विधेयता भादि से भिन्न तद्विषयताकप है किन्तु स्पष्ट तामामक विलक्षणविषयताकप है। ___ आशय यह है कि किसी वस्तु का स्पए शान ही उस घस्नु का प्रत्यक्ष । अनुमिति भाविज्ञान साध्यवस्तुमादि में स्पष्ट न होने से ही साध्याधि अंध में प्रत्यक्षात्मक नहीं होसे, स्पष्टता ही प्रत्यक्षत्य है। इसीलिये 'पर्वतो हिमान' यह भनुमिसि भी पर्वत अश में स्पष्ट होने से ही उस अंश में प्रत्यक्षरूप होती है और पर्तन अश में प्रत्यक्ष रूप होने से ही इस अनुमति के पाद 'म साक्षात्करोमि' के समान 'पर्वन न माना करोमि यह धुशि मर्यो उत्पम्म होती है | तात्पर्य यह है कि उक्त अनुमिति हिमश में नहाने में उस गश में साक्षा काररूर नहीं है, अतः उक्त मनुमिति के बाद 'पनि सातारकरोमि' पर युद्धि तो हो सकती है, परन्तु पर्यत अंश में स्पष्ट होने से उस अंदा में साक्षात्काररूप होने के कार० उन भनुमिति के याद 'पर्यतं न साक्षात्करोहि' या बुद्धि नहीं हो सकनो, क्योंकि अनुमिति के रूप में पत्र का साक्षात्कार विद्यमान है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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