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________________ स्या कपका परि० वि० न चैयं प्रत्यभिज्ञायस्तिनांशे स्मृतिरूपत्वेनेदतांश च प्रत्यक्षत्वेनोपपत्ती स्पतिपार्थक्येन परोक्षमध्ये परिगणन विरूध्येगेरि मापू, शिपोशमन माझा तस्याः पृथक परिगणनादिसि युक्तमुत्पश्यामा, अधिकं 'न्यायालोक' । बोधः स्वार्थावबोधक्षम र निहतानानदो पेण इष्टः सस्मादस्माकमन्त विरचयनि चमत्कारसार विकासम् । येपामेषाऽपि वाणी मनसि न रमते स्वाग्रहप्रस्ततस्यालोका कोकास्त पते प्रक्रनिपाठधियो पन्त । इन्तानुकम्प्याः ॥८४॥ एसा ही प्रत्यनम्न है यह सात प्रमाणनयतयालो' नामक अन्ध में दिये गये 'पर' प्रत्यक्षर' इस मग्यलक्षण से भी सिच है: अथवा प्रायसव के सानारूप होने से ही प्रत्यक्ष का उक लक्षण मो मूत्रित हुआ है। इस स्पमताका प्रत्यक्षत्व का षिवेषा सपास यशोविजयत हानार्णव' नामक प्रमथ में भी उपलभ्य है। स्पता को प्रत्यक्षम्यरूप मानने से इस शैका को भी अपलर नहीं कि 'शाम को स्थ का संवेदक मानने पर उसे एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा क्योंकि हम अपने स्थरूप में भी स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष प्रमाण में ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है। प्रत्यभिज्ञा का पृथक पारंगणन अनुचित नहीं है। इस सन्दर्भ में या शंका हो राफनो , * "श्याभिशा-'सोऽयं धन: इस शाम को स्मृति में भिान परोक्षशान के रूप में प्रथों में परिगणित किया गया है, किन्तु स्पषता को प्रत्यक्षम्यरूप मानने पर उसे स्मृति से भिन्न परोक्षहान कहना उचित नहीं हो सकता क्योंकि न प्रत्यभिशात्मकमान तप्ता अंश में स्मृतिकप होने से स्मृसिभिन्न मही हो सकता और बसन्ता वश में स्पष्ट होने से प्रत्यक्षात्मक होने के कारण परोक्ष भी माहों हो सकता। - इस शंका के उत्तर में यह कहना उमित प्रतीत होता है कि प्रत्यभिशा का स्मृति से भिन्न परोशमान के रूप में जो परिगणन हुआ है उसका कारण या मही है कि यह तत्ता अंश में स्मृतिरूप और सता मंश में प्रत्यक्षरूपनों के सकता, किन्तु उसका कारण यह है कि जिस श्नयोपशम में स्मृति मोर प्रत्यक्ष का जन्म होता, प्रत्यमिता का जन्म उस प्रकार के क्षयोपशम से होकर उससे बिलक्षण क्षयोपशम से होना। अतः स्मृति और प्रत्यक्ष की सामग्री से षिलक्षणसामग्रीहारा उत्पन्न होने से उसे प्रभृति और प्रत्यक्ष बोमो से विभिन्न मानना ही न्यायसंगत है। इस विषय में अधिक विचार 'उपाय यशोषिप्रय के 'भयायालोक' नामक प्राय में उपलभ्य है। इस समस्त प्रकरण का निष्कर्ष या है कि शामावरणीयकमंडप महानतोष से मात काम उस दोष के निवृत होने पर ही अपने विषय को प्रकाशित करणे में समय होता है । विषय के प्रकाश में उक्त दोष की निवृत्ति के मतिरिक्त किसी वस्तु की अपेक्षा उसे नहीं होती।' इस मापना से ही इस आईतों का सिपमहत मौर उकसित हो जाता है। किन्तु इस उमम बात में भी जिन लोगों का मन नहीं रमता, निश्चय हो वे स्वमात्र से शल्युष्टि है , उनका तरवमान उनके काम से प्रस्त है, अतः उक्त तथ्य का पुनः पुनः उपदेश देकर उन पर छपा करमानी अषित | |
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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