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________________ . २०० शास्त्रवासासमय-स्तबक १ प्रलो० ८५ ____ "नन्ययमपत्ययो नामनि साक्षी, नीलादेरिवार कारस्यापि बुद्धि विशेषाकारत्वात, नीलादि-पनविदो विषेकाऽदर्षानेन 'मेदाऽसिद्धः कर्मनया भानम्ग पूर्व प्रान्तिानामसकत्वात, बाबार्थ पिनाऽपि तदापास्य रजतादिभ्रम य , मनुमा भेगांड र्थाभावसिंदेः, परोपलम्भे मानाभावान्ः भावेऽपि म्बार दृष्टनीको म्यवसादिवडे कत्वाऽसिद्धा, कर्याचदेव किनिदाकानियमस्य च म्बनमायामा नागरायायायामपि नियत्तबासनाप्रबोधेन संवेदननियमादपपमः" इत्याशङ्कायमा [विज्ञानवाद का मामविरोधीनो । ] नित्यात्मवाद के वरोध में कार की ओर से यः ई.का 1 सकती ६ मि... "अहम-"में इस प्रकार की प्रतीति में विग्नि निन्य सागा की मिति ft 1 मनमी पोकि नील आदि पवाघों के समान आकार देश में सा हमादामी पुद्धि का ही एक विशेष आकार है, अतः पुरंद में एक उमा स्नाय नी ? सकता । यदि यह कहा जाब कि- नील आनि घार्थ संनद घुस प.1 विशेष दाःकार होने से बुद्धि से भिन्न नहीं है. इस बात में कोई HR. IF में में शान्तमा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकना" तो यह नाकमा , क्यों, नीran दि संघिद' वृद्धि से भिन्म होते तो धुनि से पृथक उनका प्रशंग होना, गा गा नी दाता * किन्तु युनिट के निवेदन के साथ ही नील आनि .1 मा . मान सार्थ में बुद्धि का मे सिजन होने में !न्हें विशेषका मानव निसिंगन लिये भईकार को शिविशेषामक बनाने टिप्रे .I. A का एकमा प्रस्तुत करने में कोई पात्रा नहीं हो पनी । नील आह को मंयिम् से अभिन्न मानों पर सका संघर के कर्म कप में भार माटी हो सकता'- पह शंका नहीं की जा जत्रो योकि अनागों को न भात वाया में सचिव की कमता का मो भ्रम है उनी में उत्तरोना भी सर प्रकार का भ्रम होते रहने में कोई नियाध नहीं हो सकता। ___ बाह्य दुलि से भिन्न अर्थ की सना यति न होगी तो युमि का अर्थ का बाका न प्राप्त हो सकगा' पर पोका भी नाही की पा सकती, क्या करमत न होने पर भी रजनम को बजन का साकार प्राप्त होता . मा प्रकार अन्य बुया का भी अर्थ होने पर भी भार्थ का साकार मागत होने में कोर बाधा नहीं हो सका। सत्सवमकार बुद्धि से पृथक तत्तद् अर्थ की बना न गानने का एक या मो काग है कि तसभोंकार बुति के उगलम्म के पूर्व नमद्भय का परम्म होता । यदि नार्थ का रस पी कार बुद्धि से पृथक मिनत्य हाता तो कवर के पूर्व भी उन को भाकार प्रदान करनेघाले अर्थ का उम्मTIT, पर मानी होता, मातः समन् वर्षाकार युग्म मे मित्र जनन् पर्थ की सना का सम् नी । "रिस काल में जिस मनुषय को तत्सत् अशाकार बुद्धि होती है. उस काल से पूर्व उस मनुष्य को तत्तत् अर्थ का उपसम्म न होने पर भी अन्य मनुष्य को तरा अर्थका
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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