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स्या का टोका : वि० उपलम्भ होता है, अमः भाय मनुष्य के रस उपलम्भ के बल से नल अर्थ की बुद्धि से भिन्न तत्तत् मर्य की सत्ता सिद्ध होने में कोई बाधा नही हो सकती. पोंकि इस प्रकार के बस्तम्भ में कोई प्रमाण नही है और यदि इस प्रकार का उपनाम मान भी लिया जाय तो यह मानने में कोई युति न ई कि एक मनुष्य जिमील एदाय को देता है, भम्य मनुष्य भी उस्त्री नील पदार्थ को देखता है, प्रत्युत यह मामला अधिक युक्तिसंगत है कि जैसे विभिन्न मनुष्य के अनुमय में आनेवाले सुखों में पश्य नहीं होता उसी प्रकार विमिन मनुष्यों के अनुभव में आने वाले नील मादि पापों में भी ऐक्य नहीं होता । मतः यह मानना को विन प्रतीत होता है कि नसत् मनुष्यों को प्रतीत होमे ले मील मावि पदार्थ नत्तत् मनुष्यों को होनेवाले तत्सम्मकारखानों से भिन्न नहीं है।
"पशाम का मो आकार होता है, वही अन्य ज्ञानों का भी ध्याफार नहीं होता, किन्तु नियमितरूप से भिन्न-भिन्न हान भिन्न भिन्न आकार के ही होते हैं, प्रान के थाकार का यह नियमन अर्थमूलक की हो सकता है, पर यदि शान से भिन्न पर्ष का मस्तिस्य ही न होगा तो गक साधनसामन्त्री से होनेवाले सब मान समान माकार के ही होंगे क्योंकि उन में प्राकारमेव का कोई आधार न होगा, असा शानी में अनुभयसिम श्राकारमेर की इपत्ति के लिए यह मानना आवश्यक है कि प्रत्येक पान अर्थमूलक होता है, अन। जो काम जिल अर्थ में मान्म होता है या उस अर्थ के आकार को प्रास करता है।"-किन्तु पर युकि भी मानभिन्न गर्थ को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि स्वयकाल में भी मनुष्य को विभिन्न धाकार के काम उत्पन्न होने पर उस समय शान को आकार प्रदान करनेवाले अर्थ जप म्थत नहीं रहते, अतः यह मानना पडताकि उस समय होनेवाले सानो को को विभिन्न भाकार प्रास होते है ये अर्थ से प्राप्त न होकर समानाकार वासना से ही प्राप्त होते हैं. तो फिर मैंग स्वयकाल के भिग्नाकारमान भिन्नाकारचालना से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार जागरणकाल के भिन्नाकार ज्ञान भिन्नाका. याममा मेही उत्पन्न हो सकते हैं, अतः उनके लिंग शाम से भिन्न विविध अधों की कल्पना निरर्थक है।
आशय यह है किसान और बासना का प्रवाद मनादिकाल से चला था रहा है। दोनों के अनावि होने से यह कहना सम्भव नह है कि इन दोनों में किसका उदय पहले हशा और किसका बादमें, किन्तु इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि काम से यातना और पासना से शान की उत्पत्ति का कप वीज और बंकर की उत्पत्ति के मर के समान अशातकाल से चला जा रहा है। इस क्रम में उन दोनों से भिसा किसी पली पस्त की अपेक्षा नही है जो अपने आकार से पनो आकारमान यमाये, पयोंकि ये दोनों निसर्गतः मियताकार ही उत्पन्न होते हैं।
अतः यह शेका स्वाभाविक है कि “जैसे नीलभाविपदार्थ नीलादिभाकार में होने माले संवेदन से भिन्म नहीं है, उसी प्रकार. अहमर्थ आत्मा भी आमाकार संवेदन से अपना कोई भिग्न अस्तित्व नहीं रग्नता, इसद्धिप गरूप से अनुमय में भाने पाली
शा. पा. ३६