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________________ स्था० का टीका व हि. वि. इदमभ्युपगम्योक्तम् , वस्तुतः प्रागुक्तरीत्या लोकसिद्धाश्रयणमपि चार्वाकस्य न युक्तम् । तथाहि-यत्तावदुक्तम् 'अनुभवसिद्धोऽर्थो नापहोतुं शक्यत' इति तदभ्युपगमबाधितम् , अनुभवसिद्धस्य जात्यादिवैशिष्टयास्यानभ्युपगमात् । परीत्यमाणस्य तस्यानुपपत्तेस्तदनुभवबाध इति चेत् ? तर्खनुगताकारविषयत्वेन विशिष्टज्ञानमात्र एव प्रामाण्याभावनिश्चयाद् दुरुद्रो व्यवहारबाधः । तस्य तद्वयाप्यत्वानिश्चयदशागां सन्देहसाम्राज्यात. कोट्यस्मरणदशायां तस्याप्यभावाद् या न तद्वाध इति चेत । तथापि विश्षदर्शिनस्तव प्रवृत्तिशून्यत्वापातः । धर्मिमात्रविषयकाद् निर्विकल्पकाद् धर्मिमात्रविषयिण्या एव प्रवृत्तरभ्युपगमाद् न दोष इति चेत् ? तर्हि यदुक्तमने 'तान्त्रिकलक्षण अक्षितमेवानुमान प्रतिक्षिप्यते, न तु स्वप्रतिपत्तिरूपं व्यवहारचतुरम् ' इति, नकि विस्मृतम् ? कथं च सविकल्पकव्यवहितस्य निर्विकल्पकस्य प्रकृत्युपयोगित्वम् ।, इति यूक्ष्ममीक्ष्यताम् । (लोकसिद्ध का स्वीकार चार्वाक को अनुनित) भूतचैतन्यवादी चार्वाक की ओर से जो यह बात कही गयी है कि "कालमेर से से शरीर और भूतों में भेव-अमेद दोनों मान्य हो सकते हैं" वह 'लाफ सिद्ध काल की सत्ता चार्वाक को मान्य है इस बात को अभ्युपगम करके ही कही गयो है। वस्तुतः तो लोकसिद्ध का आश्रय लेना बाकि के लिये युक्तिसंगत नहीं हो सकता । चार्वाक के अनुयायियों ने जो यह बात कही की लोकसि अर्थ का अपलाप अशक्य है वह चार्वाक की मान्यता के विरुद्ध क्योंकि अयं गौः, अयं अश्वत्यानि अनावों से सिड होने पर भी गौ-अश्व आदि में मोव, अश्वत्व आदि जातियों के वैशिष्ट्य को चार्वाक ने स्वीकार नहीं किया है। यदि यह कहा जाय कि-"परीक्षा करने पर जाति मादि की उपपत्ति न होने से वे अनुभव बाधित हो आते हैं, अतः जातिचैशिष्टय अनुभवसिद्ध ही नहीं है"-तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विशिष्टज्ञानमात्र अप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि वे सभी अनुगत आकार को विषय करते हैं और परीक्षा द्वारा वस्तु का कोई असुगताकार सिद्ध नहीं होता, फलतः विशिज्ञान से होने वाले सम्पूर्ण व्यवहारों का लोप हो जायगा, क्योंकि चार्वाक के मतानुसार इस व्यवहार लोप के परिहार का कोई उपाय नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-"जिस समय विशिष्टशान में प्रामाण्याभाव की व्याप्ति का अर्थात् 'जो जो विशिशान है बह वह अप्रमाण है इस व्याप्ति का निश्चय न होगा उस समय उसमें प्रामाण्याभाव का सन्देह ही हो सकेगा, निश्चय न हो सकेगा, और जिस समय प्रामाण्य - अप्रामाण्य इन दोनों कोधियों की उपस्थिति न होगी उस समय विशिघ्र शान में प्रामाण्याभाव का सम्वेह भो न हो सकेगा । अतः उन समयों में विशिष्टशान से व्यवहार सम्पन्न होने में कोई बाधा न होने से व्यवहार का लोप नहीं हो सकता"तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त रीति से अन्य जनों के व्यवहार का लोप भले न हो, किन्तु चार्षीक के अपने व्यवहार का लोप तो अनिवार्य है, क्योंकि वह तो
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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