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शास्त्रमा समुच्चय-स्तबक १ श्लोक ४२ ... अत्र यद्यपि हेसुत्रयेणाप्यदृष्टसाधनादेवात्मसिद्धिः, अदृष्टं चालौकिकम्, इति लोकसिद्धत्वं व्याहतम्, तथाप्यनायत्याऽदृष्टकल्पनात् तत्र शब्दस्यानपेक्षणाल्लोकप्रसिद्धकार्येण लोकमसिद्धत्वमित्यमिमानः ।
न चातिशयस्य भोग्यनिष्ठतयैवोपपत्तिः, भोगनिर्वाहार्य भोगसमानधिकरणस्यैव तस्य कल्पयितु युक्तत्वात् । अभिहितं चेदं-"संस्कारः पुंस एवेष्टः प्रोक्षणाभ्युक्षणादिभिः" इत्यादिना कुसुमाञ्जली [स्त० १-का० ११] उदयनेनापि |
(भदृष्टवारा लोकप्रसिद्धि का साधन दुष्कर नहीं) आत्मा की लोकसिद्धता के समर्थन में कारिका में जिन तीन हेतुओं का उल्लेख किया गया है स्पष्ट है कि उनसे अइष्ट का साधन करके ही उसके आश्रयरूप में आत्मा को सिद्धि की जाती है, इस स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-'जिस अदृष्ट के आश्रयरूप में मात्मा का अस्तिष मानना है वह अद्दष्ट ही अब अलौकिक है सब उसके द्वारा सिद्ध होने वाले आत्मा को लोकसिद्ध कैसे कहा जा सकता है? इस प्रश्न का पुत्तर यह है कि उक्त हेतुओं से जो इष्ट की कल्पना की जाती है, वह अगत्या (अनिवार्य होने से) को जाती है, क्योंकि उसके बिना उक्त हेतुओं की उपपत्ति ही नहीं हो सकती । अतः आत्मा उस अलौकिक अदृष्ट का माश्रय होने से यद्यपि अलौकिक ही है तथापि उसकी सिद्धि में शम्पप्रमाण की अपेक्षा न होने से तथा लोकप्रसिद्ध कार्यों द्वारा हो उसको सिद्धि होने से उसे लोकसिद्ध' कहा जा सकता है।
(अदृष्ट का आश्रय भोग्य विषयादि नहीं है) अष्ट कारणमात्र से सम्पन्न न हो सकने वाले कार्यों की उत्पत्ति के लिये कल्पनीय अरष्ट को मात्मा में आथित मानने पर यह शंका ऊठ सकती है कि-"अडष्ट के आश्रय रूप में आत्मा को कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि उसको भोग्य विषयों में आश्रित मानने में लाघव है, यतः वे विषय प्रयोजनान्तर से सिद्ध है, उनकी नवीन कल्पना नहीं करनी
"सशंका के समाधान में यह कहा जा सकता है कि भत पवं भौतिक द्रव्य शरीर मावि जद होने से भोक्ता नहीं हो सकते, अतः भोक्ता के रूप में चेतन आत्मा को मान्यता प्रदान करना आवश्यक है। अदृष्ट की कल्पना भोग का नियमन करने के लिये पीक माती.. येही विषय जिस आत्मा में भोगानकल अहए होता है. उसी के भोग्य बनते. अन्य के नहीं, अतः यह को भोक्ता आत्मा में ही आश्रित मानता शुक्तिसंगत है, क्योंकि अहष्ट यदि भोक्ता में आश्रित न होकर भोग्यविषय में आश्रित होगा तो भोग का व्यधिकरण होने से उसका नियामक न हो सकेगा। न्यायकुसुमाञ्जलि में उदयनाचार्य ने भी कहा है कि यश के साधन बीधि-(धान्यविशेष) के प्रोक्षण (उपर की मोर से मन्त्र द्वारा जल का प्रक्षेप)-अभ्युक्षण (सभी पार्श्वभाग से मन्त्रद्वारा जल का प्रक्षेप) आदि कार्यों से ग्रीहियों में नहीं अपि तु लायवार्थ प्रोक्षणादिकर्ता में ही अदृष्ट की सत्पति मान्य है।