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________________ -- - - - -- - - -- - -- स्या० क. टोका व हि. वि० तन्निर्वाहकातिशयितज्ञानदेवतिशयस्य विनाऽऽत्मानमसम्भवात् , पितृकर्म=घरप्रदानादिफलकपरलोकगतपितृप्रीत्यनुकुलाचारविशेषः, आदिना चिवालनादिपरिग्रहः तसिदैःतत्फलान्यथानुपपत्तेरपि, तथा तत्फलनिर्वाहकातिशयाऽऽश्रयतयाऽप्यात्मसिद्धेः।। (दिव्यपुरुष के पात्राक्तरण से मामसिद्धि) जिस प्रकार पृथिवी. जाल, आदि भूतपदार्थ लोक में 'अगम्य' दुई य नहीं है, उसी तरह भूतपदार्थी' से भिन्न आत्मा भी लोक में अगम्य नहीं है, किन्तु निवियाद रूपसे लोकगम्य है। उसे जानने के लिए अनेक साधन हैं । जैसे पात्र विशेष में मन्त्र द्वारा - दिव्यपुरुष का अवारण कर उसका अवलोकन किया जाता है, यह बात भूनभिन्न आत्मा को माने विना सम्भव नहीं हो सकनो क्योंकि मन्त्र द्वारा जहभून का आगमन सम्भव नहीं हो सकता । 'मन्त्र से पात्र में विशिष्टशक्ति का उदय हो जाता है' -यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जलपात्र में चेतनशक्ति के प्राकट्य की कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकती। पात्र विशेष में मन्त्रद्वारा जिस दिव्यपुरुप का दर्शन सम्पादित होता है, यह पुरुष जो कुछ कहना है वह व्यभिचरित' अमत्य नहीं होता । उसके अनुसार होने वाली प्रवृत्ति विसंवादिनी-विफल नहीं होती, इस बात से भी भूतभिन्न आत्मा की सिद्धि होती है, अन्यथा जहभूत द्वारा किसी बात का कथन और फिर उस कथन का अव्यभिचार युक्तियुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि किसी नयी अव्यभिचरितमात का कहना ज्ञानातिशय और उसके सम्पादक त्यतिशय के विना संभव नहीं हो सकता और ये दोनों अतिशय आत्मा के अभाव में कथमपि उपपन्न नहीं हो सकते । मृतपितरों के प्रीत्यर्थ जिन भाचारों की अनुष्ठेयता शास्त्रों में वर्णित है तथा जिनके अनुष्ठान से प्रसन्न हुये पिता पुत्र-पौत्रादि को घरप्रदान करते हैं उन आचारों को 'पितृकर्म' कहा जाता है, लोक में इस पितृकर्म को करने की प्रथा प्रचलित है, यदि भूतभिन्न आत्मा का अस्तित्व न माना जायगा तो पितृकर्मों का अनुष्ठान न हो सकेगा. क्योंकि भूतात्मवाद में मृत पितरों का अस्तित्व, आचारविशेष से उनका प्रीतिसम्पादन और उनके द्वारा वरप्रदान, ये बातें कथमपि सिद्ध नहीं हो सकती। . . ___ साँप के सेंसने पर जब मनुष्य विष के प्रकोप से मूञ्छित हो मृत्यु का पाल होने लगता है तब विषवैद्यद्वारा विष उतारने के मन्त्र का प्रयोग होने पर मनुष्य को डसने. वाला सौप जहाँ कहीं भी होता है, वहीं से इंसे हुये मनुष्य के शरीर से अपना विष खोच लेता है, यह बात भी भूतभिन्न आत्मा के अभाव में नहीं बन सकती, क्योंकि साँप यदि शरोर मात्र ही होगा तो यह तो भूतात्मक होने से जड़ है, फिर मन्त्रप्रयोग से उसे यह मान कैसे होगा कि उसे अपना विष घापस खिच लेना चाहिये । साथ ही यह भी विचारणीय है कि सांप का जशरीर दूरस्थित मनुष्य के शरीर से विष को वापस भी कैसे खिंच सकेगा? उपर्युक्त पातों से स्पष्ट है कि विशिष्ट अतिशय के विना उक्त विशिष्ट कार्य नहीं हो सकते अतः उन कार्यों के निर्वाहक अतिशय के आश्रय के रूप में भूतभिन्न आत्मा का अस्तित्व मानना अनिवार्य है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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