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________________ १३० शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो० ४२ ... प्रकारान्तरेण लोकसिद्धत्वमाह 'दिव्येति - . मूलम् ----दिव्यदर्शनतश्चय तच्छिष्टाऽव्यभिचारतः । पितृकर्मादिसिदश्च हन्त [ नात्माऽयलौकिकः ॥१२॥ - दिव्यदर्शनतश्चैव-पात्रावतारादौ विशिष्टरूपस्य पुंसः स्पष्टमवेक्षणाच्चैव, 'हन्त' इति खेदे, आत्माप्यलौकिको लोकाऽगम्यो न । न हि भूतविशेषस्य मन्त्रविशेषाऽऽक स्याऽऽगमनं सम्भवति, जडत्वात् । न या तत्र विशिष्टशक्तिः सम्भवति । तथा, तेन दिव्यदर्शनविषयेण यच्छिष्टं कथितं तस्याऽव्यभिचारादविसंवादिप्रवृत्तिजनकत्वादपि, तथा बुद्धि न हो सकेगी, जब कि जिस मैंने जिस वस्तु का पहले अनुभव किया था वहो मैं आज उस वस्तु का स्मरण करता हुँ', इस रूप में अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में अमेंदबुद्धि का होना सर्वमान्य है। उक्त दोष के निवारणार्थ यदि यह कहा जाय कि, 'अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में में उक्तअमेदबुद्धिरूप ऐक्य की प्रत्यभिक्षा होती है, वह प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में मे होने पर भी उनमें ऐप की जो प्रत्यभिशा होती है यह उनके निरतिशयसाश्य के कारण होती है, उनकी असाधारणसमानता से इनकी साधारणअसमानता अभिभूत हो जाती है। इस लिये उनमें अनैक्य का ज्ञान न होने से उनमें ऐक्य का शान निर्वाध हो जाता है। बौदर्शन में प्रत्येक भाव क्षणभार होता है, अतः उस दर्शन में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव न मान कर तत्तत्कार्य के प्रति तत्सत्कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती (कारण) को सत्तत्कार्यकुर्वपत्वेन कारणता मानी जाती है। जो कार्य जिस कारण के सनस्तर उत्पन्न होता है इस कारण में उस कार्य के उत्पादनानुकूल अतिशय-एक प्रकार का उत्कर्ष होता है, उन अतिशय को बौद्धदर्शनमें कुर्वपत्य कहा जाता है. मिस कार्य का कुर्वदपत्व जिस कारण में रहता है उस कार्य को उत्पति उसी कारण से होती है । उपजाऊ साधासम्पन्न खेत में डाले गये बीज से अाकुर उत्पन्न होता है। किन्तु घर के कोठार में रखे बीन से अकुर नहीं उत्पन्न होता, इस विषमता की उपपत्ति कुर्वपम्ब से ही सम्पादित होतो है, बौद्धदर्शन की इस मान्यता के अनुसार स्मरण के विषय में भी यह कलाना की जा सकती है कि "शरीर के जिस परमाणुपुरज में जिस स्मरण का कुर्चद्पत्य रहता है उस उस परमाणु पुञ्ज में स्मरण की उत्पत्ति होती है। करयुक्त शरीर द्वारा अनुभूतविषय का समाण करहीन शरीर में भी होता है, अत: करयुक्त शीर द्वारा अनुभूतविषय के स्मरण का कुर्वद्रपत्व कर डीन शरीर में भी मान्य है।" . किन्तु विचार करने पर योद्धदर्शन की ये गाने उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि भाव की स्थिरता अक्षणिकता एवं अनुभव कर्ता और स्मरणकर्ता के पक्य की प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणिकता का युक्तिपूर्वक उपपादन आगे किया जायगा ॥५॥ ४२वीं कारिका में अन्य प्रकार से आत्मा को लोकसिद्धता का प्रतिपादन किया गया है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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