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शास्त्रवाचिक
पाटितपक्ष्मावयव तत्राप्युदभूत स्पर्शषश्यामाम भनुभूतरूपस्यो भूत कवजन कसा पर हवानुयूतस्पर्शस्यापि निभिसभेश्संसर्गेणोद्धूतस्पर्श मनफत सम्भा वा सम्प्रतिपते । अपि च प्रसरेणोद्भूतस्पर्शवत्वे तरस्पर्शस्पार्शनप्रत: । विशेषाभावाद न इति वत् १ न एकत्व विशेषाभावेन विनिगमनाविरहान् प्रया त्याच्च । 'आभावाचाभावस्य द्रव्यान्यसश्वा चप्रतिबन्धकत्वाद् म' इति उद्भूतस्पर्श भावस्यैव तत्प्रतिबन्धकत्वेन तादूत्वकल्पनाचित्यात् । वस्तुतः प्रभाघटपणा पराभिमतजातिस्थानीयत्वगत्रायतास्वभावादेव न स्वायत्यम् इति नेतास्विमपि
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विघटनाथ प्रभा में उत्भूतरूप में उद्भूतस्पर्श का व्यभिचार विद्यमान है। यदि यह कहे कि "भा में व्यभिचार होने से यदि उद्भूतरूप में उद्भूतरूप की व्याप्ति नहीं है, वो मत हो पर भूतभीररूप में उपरी को व्याक्ति सो निर्वाध है। इस प्राप्ति में शक की हाय कि 'धूम में उतनी रूप में उद्भूतस्वर्ग का व्यभिचार होने से उक्त व्याप्ति में बाध है तो वह व्यर्थ है, क्योंकि वक्षु के साथ धूम का सम्बन्ध होने पर वक्षु से अनुपात होने के कारण धूम में उद्भूता का होना अनिवार्य होने से उत्सूतनीरूप में उतस्पर्श का व्यभिचार असिद्ध है। इस प्रकार जब
भूतनीलरूप में उच्भूतरूप की व्याधि निर्वाध है, तब अन्धकार में यदि उद्भूत मीरूप माना जायगा तो उसमें उत्तरपर्श की भी आपत्ति योगी, अतः उस में उपभूतभीरून महीं माना जा सकता, नीकेतररूप भी उस में प्रमाण के अभाव में मान्य नहीं हो सकता, फलतः अन्धकार में रूप की सिद्धि न होने से रूप से गन्धकर र
स्व का अनुमान दु तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि चनु-धूमसंयोग को नुवान का जनक नाम लेने से भ्रम में उत्तस्पर्श मानना आवश्यक नहीं है अतः धूम में उद्भूतमरूप में उद्भूतरूपर्ण का व्यभिचार अभिवार्य है। इसी मकार नीलीकेसरेणु में भी उष्भूतमोरूप में उद्भूतस्पर्श का व्यभिचार अपरिहार्य है । इसलिये भूतनीरूप में उद्भूतस्पर्श की व्याप्ति म होने से उद्भूतरूप से उद्भूतरूपर्श की भाप का कोई भय नहीं है, अतः कोई बाधक न होने से अन्धकार में भूत नीलरूप सिन है और इसलिये रूप से मन्पकार में द्रव्यन्य का अनुमान करने में कोई बाधा नहीं हो सकती ।
[नीलिक्सरे में व्यभिचारापति के उद्वार का प्रयत्न ]
चक्का हो सकती है कि- "किसी पट को फाडने पर जो उसके सूक्ष्म अवयव लिलते हैं उनका स्पर्श उद्भूत होता है, क्योंकि यदि पत्र उद्भूत न होगा तो उससे पड में अद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति न होगी और न उसके सम्बन्ध से चलू से अनुपात होगा । तो पर उस सूक्ष्म मघव इष्टान्त से नीलव्य के सरे में भी उद्भूतस्वर्श फा अनुमान हो जायगा, अतः नीलिप के असरे में भी उद्भूतरूप में भूतपदी का चार नहीं हो सकता ।" - किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फाये हुए पंड के सूक्ष्म भवन में मी उतरूप के होने में प्रमाण न होने से इष्कात दी सम्प्रतिपन्न