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स्पा० क० ठीका व वि०
हिरोप्यमाणपीताश्रयेऽपि न व्यभिचारः, तत्रापि स्मर्यमाणारोपेणैष पीतधीनिर्वाहा चहिपतद्रव्यकल्पनात् पहिर्गन्धोपस्तु षाध्याकष्टानुदभूत रूपमागान्तरे चैवोपपजेरिति वाच्यमानाभावात् प्रभायां व्यभिचाराच्च । न चोभूतनीरूपवन्यमेयोभूतस्पर्शव्याप्यम् न च धूमे व्यभिचारः, तत्राप्युत् भूतस्पर्शवत्वात् अत एव तत्सम्ब Paraast जलनिपात इति वाच्यम् चचूर्मसंयोगत्वेनैवापादनकस्वाद् घूमे उद्भूत स्पर्धाऽसिद्धेः, नीलित्रसरेण व्यभिचारान्ने ।
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यदि यह कहे कि 'नीरमणि की प्रभा सभ्य होने से स्वभाव शुभ है, किंतु उसमें सीमा की प्रतीति होती है, उसके अनुरोध से उस प्रभा में उत्तरप से शुन्य किसी भी की अनुमान है उसमें उ भूतरूप भूतप का व्यभिवारी है अतः उद्भूतरूप भूतदपूरी का ध्या हो सकता तो यह ठीक नहीं है, कि दूरस्थ उद्भूतरूपवान नीलव्य के रूप का स्मरण मान कर उसके आरोप से भी इन्द्रनील की मभा में नोलिया की प्रतीति का निर्वाह किया जा सकता है अतः घूमा में उदभूत स्पर्शशस्य नीलवग्य की अनुस्यूति की कपना गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है ।
यदि यह कहे कि स्फटिकमणि के शुभ भाण्ड कुकुम भर देने पर भाण्ड के बाहिर पीतवर्ण की प्रतोनि होती है, उसकी उपपत्ति के लिये भाग्य के उपरी भाग पर किसी ऐसे पीतऋत्य का अस्तित्य मानना मावश्यक है, जिसमें उतस्पर्श नगर जिस के सम्विधान से भाषा के बाहर पीतिमा की प्रतीति हो सके उस पीतव्य में उद्भूतरूप प्रभूतरूप का व्यभिचारी है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्फटिकमा कुकुम से पूरित होने की दशा में भाण्ड के बाहर जो पीतिमा प्रतीत होती है उसका निर्वाह भो किलो दूरस्थ उद्भूतस्पर्शरूप के पीलरूप का स्मरण मान कर उसके आरोप द्वारा सम्पन्न हो सकता है। भसः स्फटिकमाण्ड के उपरी भाग में किसी पीतद्रव्य सग्निधान की कल्पना अमावश्यक है। यदि यह कहे कि 'रिकभाण्ड के बाहर प्रतिमा के साथ गन्ध को भी होती है, तो पीतिमा की प्रतीति का निर्वाद तो दूरस्थ वय के स्मर्यमान पोनरूप के आरोप से किया जा सकता है, पर गन्ध की उपलब्धि तो मधवानप्रस्थ के सन्निधान के बिना नहीं हो कतो, तो इस प्रकार जो गन्धवान् थ्य समिति माना जायगा, प्रतीयमान पीतरूप भी लाभ से उसका रूप माना जायगा अतः उस में उद्भूतरूप में उद्भूतरूपये का व्यभिचार अपरिहार्य है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गन्ध की उपलब्धि वायु द्वारा उपभीत अनुभूत रूपवान् व्य के गन्ध से भी सम्भव होने से उक्त रीति से व्यभिचार की शङ्कर भयुक्त है। फलतः उद्भूतरूप में उद्भूतस्पर्श की व्याप्ति के निर्वाध होने से कार में उतारी की मापत्ति उसके उत्भूतरूपवान् होने में सकती है".
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[उदभूतरूप की उद्भूतस्पर्श में व्याप्त नहीं है । ]
विचार करने पर यह शङ्गित भापति निराधार हो जाती है, क्योंकि उप में भूतप को ध्याप्ति का प्राहरू कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उक्त स्पाति के