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शास्वपायांसमुखाय-स्तक । महो० ७७ न अभावःच्छा , मानमाप्नोतिपारमार्थिक प्रतिपद्यते, शशी तथाऽगतेःभावत्वेनापरिषदात । माशेऽपि पारमार्थिक जगति अभावतुम्नस्वभावं, नैति । मनु दीपो भावरूपः, स चालोकाभावात्मकान्धकारस्वरूपता प्रतिपद्यत इति चेत् ! स दीपस्याध हारपरिणामः, सर्वथाऽभावरूपो न, भास्त्ररपरिणामपरित्यागेऽपि इष्यत्वाsपरित्यागात् ।
तेजसोऽतिविनिवृत्तिरूपता स्वीकृता तमसि या फणाविना ।
द्रष्यता क्यममी मीक्षिणस्तत्र पत्रमालम्व्य चक्ष्महे ॥१॥
तमो द्रष्य, रूपवतात. घटयत् । न च देवसिद्धिा 'तमो नीलम्' इति प्रतीते सार्वजनीनत्वात् । न चासौ भ्रमः बाधकामावान् ।
न चोभूतरूपमुभूतस्पर्धव्याप्यम्, इत्युभूतरूपवरषे उदभूतस्पर्धापत्तियाँधिका, इन्द्रनीलप्रभासहरितनीलभागस्तु स्मर्यमाणारोपेणैव तत्प्रभायां नीलधीनिर्वाहाद् गौरवादेव न कल्पते, इति तत्र न व्यभिचारः, कुमादिपरितस्फटिकमाण्डे ___ मभावात्मक पदार्थ तुमच होता है। यह कभी भी परमाकर नहीं होता जैसे शश कभी भी सत् नहीं होता. उसमें कभी भी भाषरक्ष-परमार्थसारसा का परिच्छेद (बोष) नहीं होता। इसी प्रकार भाषामका पाथरूप होता है. पर सुख के असत्यस्वभाव को कभी नहीं प्राप्त करता, अर्थात् सवस्तु कभी भी असत् नहीं होती । का करे कि-"वीन भावात्मक पदार्थ होने हुये भी सेल या पसी के समाप्त हो जाने पर मधषा सीप पायु का झोंका लग जाने पर आलोकाभावात्मक अन्धकार रूप हो जाता है। मतः 'भाषामक पदार्थ कभी अभावात्मक महो होता,' यह निषम व्य. भिचरित है,"-तो घा व्यर्थ है, क्योकि वीप का अन्धकाररूपपरिणाम सर्वथा श्रमावरूप नहीं होता । उस में केवल भास्वरपरिणाम का अभाव होता है, व्यत्व का मभाव नही हाता । कर्म का आशय यह है कि अन्धकार मालोकाभाषरूप नहीं, किन्तु मापररूप से शुम्य पक म्य ।
[अन्धकार अभावरूप नहीं है। ज्यापयाकार का कहना है कि कणाद ने जिस अन्धकार को तेज का अयन्ताभाषमामा है. समीक्षक गण उसे ही प्रमाण के पळ से द्रष्यरूप मानते हैं। पर प्रमाण भनुमान है. जैसे 'अधिकार प्रष्यस्याप है क्योंकि यह नीकरूप का आश्रय है। जो कए का माशय होता है पर दृष्यस्वी होता है, जैसे 'घट' । अन्धकार में कपासक हेतु की मसिद्धि नहीं क्योंकि तमो मोलम्'- अन्धकार नील होतास सार्वजनिक प्रतीति से मम्धकार में रूप सिख है, अन्धकार में नोलत्य की प्रतीति अमरूप नहीं क्योकि भथविध प्रतीति से उस का पाय नहीं होता।
[उदभूतरूपव्याष्य उगभूतस्पशे की अन्धकार में मापत्ति पा बा की जा सकती है कि-"अभूतरूप अभूतस्पर्श का पाप्य है, अतः मन्धकार में उपभूताप भागने पर उस में अभूतस्पर्श की भी भापति होगी इसलिये पह मापत्ति की मम्धकार के अपमान होने में बाधक है