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डीका ... स्वीकत नहीं है। यदि यह को कि-" के सूरुम अपययों में उभूनस्पर्श न मानने पर पर में उचूभूतस्पर्श की आचि नबो सकेगी"-तो यह डोक महीं है, क्योंकि
से भवभूतरूप से अभूतरूप की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार अनुभूतमार्श से मार मावि विशेषमिमित्त के सहयोग से उभूतस्पर्श की भी उत्पति हो सकती है। मके सूक्ष्माषय के सम्बन्ध से बक्षु से अष्टपास की उत्पत्ति भी अनुपात के प्रप्ति पशु मोर पारित पट के सूक्ष्मास्यय मेयोग को कारण मान लेने से सम्पन्न हो सकती
मतः पर के सूक्ष्मायनों में उमृतस्पश अप्रमाणिक हो, स प्रकार उद्भूतरूप पर के सूक्ष्म अवपत्रों में भी उदभूतस्पर्श का व्यभिवारी है।
अथवा 'नच पादितपट'....सेवातालमविपत्ता, पर्यम्सन य की ष्णाल्या इस प्रकार की जा सकती है कि-पट के सम्मापयवों का रसात नीलिवथ्य के प्रप्तरेणु में उदभूतः स्म की अनुमिति के मनुकूल रवान्त के रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि मनु. भवरूप में उभूनकप को जनकमा के समान निमित्त विशेष के सहयोग से अनुभव स्वी में उपभूतस्पर्श की जनकना का सम्मष होने से यह अनुमान कि. "मीसिनव्य का असणु उदभूतस्पर्शवान है, पौषि उभयस्पर्शयान, चतुरणुक शादि का जनक है, जैसे पाटिन पद का लक्ष्माश्यष' अथवा 'नीलियुष्य के प्रणरेणु का स्पर्श उभूत है, कयोंकि बातुरणुक में भूसस्पर्श का जनक है. जैसे पाटिनपट के सूक्षमावयव का स्पर्ध"विराधार है।
भानुभूतरूप में उद्भूतरूपजनकता पर प्रश्न] अनुभूतपश में उद्धृगस्पर्श की जनता में समर्थन में गनुभूतरूप में उभूतका की समकता को पासरूप में प्रस्तुत किया गया १स पर मशा हो सकता है कि"या जमकता मिज कहां है? कि सर्वत्र परमाणु तयणुक आदि में अद्भसम्प ही माना जाता है, उसी से पणुक मादि में उद्भनरूप की उत्पति होती है। परमाणु धौर अपाक में प्रभूतला होने पर भी पन का मानुषप्रया इसक्तिये नहीं होता कि जनमें चाक्षुषप्रत्यक्ष का कारण मस्य नहों रहता। अतः इस रष्ट्रात के सिर होने से जल के सहारे अनुभूनस्पर्श में उत्भूतम्पर्शजनकता के औचित्य का समर्थन प्राय नहीं है।"-ल प्रबन के उत्तर में या कहा जा सकता है कि मनु के प्राप्यकारिपसमिकरस्तुसम्पनोसकन पत्र में चक्षु से पर्यात दूरस्थ अप आदि के प्रत्यक्ष को हरपति के लिये कालिमार आवि विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि श्री रमि अब पाहर निकलनो है जय प्राय पालोक से मिलकर घन वृद्धत् चक्षुर विम को पन कर रेसो है । इस यातू पशुपक्षिम द्वारा दररथ दमों के साथ सच का सग्निकर्ष होने मे मा जारा उन का प्रत्यश्न सम्पन्न हाना है। तो यह जो पृष्च रश्मि छापामोतो है, उसे रश्यमान पायालोक से अतिरिक्त मानने में गौरय बोमें
कारण इयमान बाालोकस्वरूप मानना ही उचित है और उसका उदभूतरूप बसुरक्ष्मि के भनुभूतरूप गवं वानमालोक के उचूभूतरूप से उत्तम होता है, इस प्रकार चक्षुरधिम के भनुष्मतरूप में पायालोक-साक्षरहिम के संयोग से डरपाल पाहालोकाम्मक
पा. बा. २६