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________________ २०२ शरयासमुन्च-स्तबक १ को प्रहमचरहिम के उद्भूतरूप की जनकता सिद्ध है' 1 पसरेगु में उभृतसपर्श भागने में ना थोर है नाम परेशाना स्पर्श वि सभूत होगा तो उसके स्पानिप्रत्यक्ष की भापति होगी | 'स्मानप्रयास में विजातीय भाइरपरिमाण कारण है, पसरेणु में उसका भभाष होने से उस के कपर्श का स्पानिप्रत्यक्ष नही हो सकता'-यह कामा ठीक नही है, क्योंकि विनिगमना के प्रमाण में यह भी कहा जा सकता है कि स्पर्शनप्रत्यक्ष में विजातीयपकस्य, विजातीय एक पूषवस्व भावि कारण है. उनका अभाष होने से प्रसपा के स्पर्श का स्पार्शवप्रत्यक्ष नहीं होता, अतः इन कल्पनाओं की अपेक्षा यही मानना उचित है कि प्रसरेणु का स्पर्श मनुभूत होता है और उस अनुभूतस्पर्श से भी निमित्त विशेष के योग से चतुरगुक माधि में उद्भूतस्पर्श की उत्पत्ति होती है। महत्यधिशेष के अमाय मे प्रसरेणु के स्पर्श की स्पार्शनप्रत्यक्ष मी होता, या काना इसलिये भी ठीक नहीं है कि-स्प तो द्रव्य से भाग्य है मतः उसके प्रत्यास में महरख कारण की कैसे हो सकता है। ज्योकि बाद महत्व तो द्रष्य का धर्म होने से प्रन्य ही के प्रत्यक्ष का कारण हो सकता है। प्रतः प्रसरेणु में यदि मास्वविशेष का भाष तो उससे बसरेणु के श्री पार्शमाभाष की उत्पत्ति होगी, कि उसके स्पर्श के स्पार्शनाभाष की उपाति होगी। (२) भु-रश्मि और मायालीक के प्रयोग से जो हद परम तत्पन्न होती है, उसमें अनुभूत ही रूप पाना जाम, सो नभु के अद्भतरूप में उदभूतरूपचनकता नहीं हो सकती'- यह आशा करना ठीक नहा है, याक एण्यमान शम्पाखोक से भिन्न हद चक्षु-गरम की उत्पनि मानने पर उस समय दृष्ठा और दृश्य के मय उक्त बहद् चधु-रश्मि और बाबालोक-इन अतिरिता दो द्रष्यों की कल्पना में गौम है । "उना आलोकारमक वृहद् नक्षु-रदिम में भुम की उत्पक्षि मारपालोक के उभूतरूप से ही होती है, उसमें चक्षु का अद्भुतम्य कारण नहीं होत:'---मह श्यना भी दीक नहीं हो सकती, स्मोकि अवयमी के रूप में सभी अवरामी के रूप कारण होते है । दूसरी बात यह है कि अवि पुजा हद् बचरपिम में केवल बाबालीक का ही रूप कारण होगा, तो चक्षु-रश्मिभाग में न की उत्पत्ति न होने से वाद् पशुग में रूप भन्या गरि हो जाएगा और रूप की नैशिक अव्याप्यवृत्तिता न्यायमिवान्स से विकर है। "चतु-रभि और शपालोक से दृश्यमान आले.काश्मक हद् चक्षु-विम की उत्पत्ति मानने पर उसमें धष्ट्र और आटोकाव का सांच्च होने से धोनी के जातित्व का भा होगा"- यज्ञ का भी ठीक नहीं, क्योंकि उसे मानान्य बालीक अर्भात चध-रक्षित से अनारब्ध आलोक से विजातीयालोक स्वरूप मानने से सकिरी का हार हो जायगा |--"जक प्रेमात चा-रशिय गं नअष्ट्य न मानने पर उसके ब्रास दूरस्य ट्रम्प के साथ चशु का मतितकर्य न । मोगा और चाष्ट्रव मानने पर उसमें चक्षुष्ट्य के चाक्षषपक्ष की भापनि हंगी, क्योंकि जिस प्रन्निय से भो माया होता है उस में रहने यारी समस्त जातियों भी उसी इन्द्रिय से प्रामा होती है मन निगम है"- यह सब गी अनुचित है, क आलोकरब से तुम्न का अधिभव होने से उसकी अधाशुपता को उपपत्ति हो सकता है। हर भार-विगत आकाय भूल अक्ष में नहीं रखता अनः बहसव का व्यापक नहीं, इस लिंप उससे पाष्ट्व का अमिभव भानने में कोई अभंगति नही, प्रत्युत उक्त आलोकल ट्त का ध्याय अतः उससे चाट्न का अभिभष योनिकी, मीनि घट जगदि के घटत्यादिमायकवा से चाक्षुषप्रत्यक्ष की बधा में प्रविधीय, हायरव आदि व्यापक रूपों से मर आदि के चातुपपत्यक्ष का अनुभव न होने से न्यायधम से म्यापकधर्म का अभिनय
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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