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स्पा० क० ठीका व शि० वि०
बोधमात्रातिरिक्त=त्रास्यज्ञानभिन्नं तत्= तस्मान्नियमात् किश्चिद्वासकमिष्यताम्, तदेव = इष्यमाणं वः युष्माकं, मुख्यं वस्तुसत् कर्माऽस्तु । अन्यथा परमार्थसदतिरिक्तकर्माseater चासन्दा न युक्ता । न हि असहयात्युपनीतभेदाऽग्रहाज्ज्ञानासनेत्यभ्युपगमः प्रामाणिकः तैलादिगन्धेषु पुष्पादिगन्धभेदादेऽपि तद्वासनोपपत्तेः । न च कादिवासनाविज्ञानवासनोक्तस्त्ररूपाऽसौ नानुपपत्तिरिति वाच्यं ज्ञानेऽह भेदानानका लिकभेदाऽप्रयोजक दीपसवाद् नेदानीं तन्निवृत्तिरिति चेत् तर्हि दोषाभावविशिष्टमेाभावो वासनेति फलितम् दोप तत्र वासनैवेत्यात्माश्रयः । किञ्चैतादशवासनापेक्षयाऽवश्यकल्पनीयादृष्ट एवाडामाणिकत्वकल्पनाऽपेक्षया प्रामाणिकत्वकल्पनमुचितमिति परिभावनीयम् ॥ १०३ ॥
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इदमेवाभिप्रेत्याह
उक्त नियम के फलस्वरूप ra मानना होगा कि शान से भिन्न कोई वस्तु ६, जिस के सम्बन्ध से ज्ञान वासित बासमायुक्त होता है, तो ऐसी जो वस्तु वासमाषादी को अभिमत है सिद्धान्तवादी की दृष्टि से घड़ी कर्म अष्ट है, उसी के सम्बन्ध से ज्ञानमात्मा का बासित होना उचित है। कर्म की वस्तुसत्ता स्वीकार न करने पर वासमा को उपत नहीं हो सकती ।
'अर की वस्तुसता नहीं है, भसत् शशशु आदि की क्याति जिस प्रकार होतो है उसी प्रकार असत् भी अज्ञान का विषय बन जाता है, इस प्रकारात भट कर शान में मेद न होने से हानपासना को उत्पत्ति हो सकती है' यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मेद से वासना की उत्पत्ति मानने पर तेल में का सम्बन्ध न होने पर भी तैलगन्ध में पुष्पगन्ध के मैदान से तेल में वासना की उत्पत्ति होने लगेगी।" संघासना से ज्ञानवासना विलक्षण है अतः वह तो ज्ञान में अमे से हो सकती है पर वासना उक्तमे से नहीं हो सकती' यह कहना भी ठीक नहीं के प्रभाव से यदि मानवासना का जम्म माना जायगा तो ज्ञान में अनुमेर के पद से उस घासना की निति होने पर संसारदशा में भी मोक्ष की आप दोगी। उत्तरकाल में दोनेवाले भेदाह का प्रयोजक रहने के कारण areer ही नहीं हो सकता' कहता है से यही सिद्ध होगा कि दोषाभावविशिष्ठ भेदाभाव ही वासना है, निर्वयन में वासनात्मकदोष का ही सम्निवेश होने से 'माय' का मत होगा ।
शान में
कि इस कथन फलतः बासना के
इस अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि इस प्रकार की वासना को अपेक्षा तं यही मानना उचित है कि जय ज्ञानवासना के लिये अपेक्षित मेवा की उपपत्ति के लिये अवश्य वनीय है तो उसे मप्रामाणिक पर्व असख्याति का विषय न मान कर प्रामाणिक मानना ही सर्कसंगत है ॥ १०३॥
पूर्व कारिका के अभिमाय को ही कारिका (१०४) में सष्ट किया गया है