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स्था० क० टीका व हिं. विं०
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सरखे तदभावायोगात् असत्वे च तदनुत्पथेः । किं च एवमुत्पत्तिपदार्थं एत्र विली - येत, कार्यस्य प्रागपि सत्त्वेनाथक्षण सम्बन्धरूपतदभावात् इत्युभयतः पाशा रज्जुः" इति चेत् ! न कथञ्चित् सदसत्कार्यवादे दोषाभावात् द्रव्यरूपेण प्राक्सतः पर्यायस्य द्रव्यरूपेण प्राप्युपलम्भात्, पर्याय रूपेणाद्यक्षण सम्बन्धरूपपर्यायोत्पत्तेः सुघटत्वाच्च । न चेदेवम् उपादानकारणत्वमेव दुर्घटं स्वात् समवाय निरासेन स्वसमवेत कार्यकारित्वलक्षण तदसिद्धेः उपादाने कार्यप्राग्भावोऽपि न सिध्येत् प्रतियोगित्वविशेषण तयोः स्वरूपान सिरेकात् इत्यन्यत्र विस्तरः |
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कार्योत्पत्ति के पूर्व कार्यसत्यपक्ष में कार्य के साथ चक्षुः सन्निकर्ष आदि व्यञ्जक के रहने से उत्पति के पूर्व व्यञ्जकाभावरूप आधिर्भावाभाव का उपपादन असम्भव होगा । और यदि व्यक्त कार्य के साथ ही लगे चक्षुःसन्निकर्षादि को व्यञ्जक मान कर पवं कार्योंपति के पूर्व पेसे व्यञ्जक का असत्व मान कर इसके बल पर व्यञ्जक का समर्थन किया जायगा, तो सत्कार्यवादी के मन में असत् की उत्पत्ति न होने से व्यब्जक की उत्पत्ति न हो सकने के कारण व्यञ्जक का अभाव सदा बना रहेगा; फलतः उत्पत्ति के वक्त भी कार्य की उपलब्धि न हो सकेगी। उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता मानने पर उत्पत्ति पदार्थ का ही विलय हो जायगा क्योंकि आरक्षण के साथ कार्य के सम्बन्ध को हो उत्पत्ति कहा जाता है; किन्तु यदि कार्य पहले से ही सत् अर्थात् विद्यमान रहेगा तो उसका कोई आद्यश्रण ही न होगा, क्योंकि किसी कार्य का आधक्षण वही हो सकता है जिसके पूर्व कार्य का अस्तित्व न हो, और उसी क्षण से कार्यसत्त्व का प्रारंभ होता हो । किन्तु यह सत्कार्यवाद में सम्भव नहीं है । फलतः दोनों और बन्धन की रस्सी झुल रही है, जिधर मुडे उधर ही बन्धन का भय है । कार्य की उत्पत्ति के पूर्व यदि उसका अलत्व माने तो श्रमभूत के समान उसकी अनुत्पत्ति का बन्धन, और यदि उत्पत्ति के पूर्व कार्य का सच माने तो उत्पत्ति से पूर्व कार्य की उपलब्धि की आपति का तथा उत्पत्तिपदार्थ के विलय का बन्धन । अतः उत्पत्ति के पूत्र कार्य के सत्व या असत्व किसी भी पक्ष के दोष मुक्त न हो सकने से कार्योत्पत्ति की समस्या दुःसमाधेय है ।
उक्त संकट के परिहारार्थ जैन दर्शन की ओर से ग्रन्थकार का कहना है कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य का पूर्णरूपेण सत्य अथवा पूर्णरूपेण असत्य मानने में उक्त दोष अवश्य है, अतः इन दोनों पकान्त पक्षों को छोड़ कर इस अनेकांन पक्ष को स्वीकार करमा
हिये कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कथंचित् सत् भी होता है और कथं चित् असत् भी होता है। कहने का आशय यह है कि कार्य में दो अंश होते है एक द्रव्य, दूसरा पर्याय | द्रव्यरूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी सत् होता है, और उस द्रव्यरूप में उसका उपलम्भ भी होता है। पर्यायरूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व असत् होता है, और उस रूप में उस समय उसकी उपलब्धि नहीं होती । पर्याय का पूर्व में सद्भाव न होने से पर्यायरूप में कार्य का आयक्षण सम्भव होने से आद्यक्षणसम्बन्धरूप उत्पत्तिपदार्थ की उपपत्ति में भी कोई बाधा नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, घटरूपकार्य की चर्चा की