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शास्त्रधा समुच्चय-स्तवक १ प्रलो.ve अत एव शाक्योलूकानां सत्कार्यवादे, मांख्यानां चाऽसत्कार्यवादे पर्यनुयोगा एकान्तपक्षनिवृत्यंशे फलवन्त एक तान्त्रिकैरुताः । तथा च सम्मती वभाण वादी सिद्रसेनः – “जे संतवायदोसे सक्कोलूआ भणन्ति संखाणं ।
संखा य असवाए, तेर्सि सव्वे वि ते सच्चा" इति ॥१४७॥ पराभिप्रायमाशङ्कय निराकुरुते 'तज्जननेति – मूलम् - तज्जननस्वभावा नेत्यत्र मान न विद्यते ।
___ स्थूलत्वोत्पाद इष्टश्चेत्तत्सद्भावेऽप्यसौ समः ॥४८॥ अण्वादयः 'तग्जननस्वभावा न'-असदुलादरवभागान तो न योऽयदुत्पत्तिः । न चैतारशस्वाभाष्येऽपि पर्यनुयोगावकाशः, 'वहिर्दहति, नाकाशम्' इत्यादिवत् जा सकती है । घट में दो अंश है-एक मृत्तिका और दूसरा जलाहरणादि की क्षमता का सम्पादक उसका आकार । इनमें मृत्तिका द्रव्य है और घटका आकार पर्याय मृत्तिका के रूप में घट पहले से है पर आकार के रूप में पहले से नहीं है । जिस क्षण इस आकार का उदय होता है वह आकारात्मक घट का आद्यक्षण है। उसके साथ घटाकार का सम्बन्ध हो घट को उत्पमि है । इसी प्रकार अन्य कार्यों में भी द्रव्य पर्याय का विचार कर समस्या का समाधान कर लेना चाहिये।
उत्पत्ति के पर्व कार्य के इस सनसत्ववाद को न माना जायगा तो कार्य की उपा दानकारणता का उपपादन न हो सकेगा; क्योंकि न्यायादिमतों में दो ही प्रकार से कार्य की उपादानकारणता का निर्वचन होता, एक यह कि जो स्व में समवायसम्बन्ध सै विद्यमान कार्यका कारण होता है, वह उपादानकारण होता है, और दूसरा यह कि जिस कारण में कार्य का प्रागभाव विशेणना स्थरूपसम्बन्ध से रहता है व उपादान कारण होता है। इनमें पहला निर्वेचन समवायसम्बन्ध अप्रामाणिक होने से असंगत है। और दूसरा निर्वचन इस लिये असंगत है कि प्रतियोगिता और विशेषणता ये प्रतियोगी एवं विशेषण से भिन्न दुचंच होने से न तो प्रागभाव के साथ कार्य का प्रतियोगितासम्बन्ध हो सकता है, और न अनुयोगी के साथ अभाव का विशेषणता सम्बन्ध बन सकता । अतः उपादान में कार्यप्रागभाष होने को बात का उपपावन शक्य मही है। इसलिये सरकार्यवाद में बौद्ध और वैशेषिकों का दोषप्रदर्शन पर्व असाकार्यपाद में सांख्यों का दोषप्रदर्शन सर्वथा सार्थक है. क्योंकि उसमें पकान्तपक्ष की निवृत्ति होती है ओ जैनसिद्धान्त को अभिमत है। सम्मतितकग्रनय में वावी सिद्धसेनसूरि ने भी कहा है कि सत्कार्यवाव में बौद्धों और वैशेषिकों से कहे दोष तथा असत्कार्यवाद में सांस्यों से कई दोष पूर्णतया सत्य हैं ॥७॥
४८ वी कारिका में पकान्समत्कार्यवादि के अभिमाय की आशंका का निराकरण किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है___ "अणु आदि का शा स्वभाव है कि वे असत् को उत्पन्न मही करते । अतः कार्य को पर्यायरूप में गदि असन् माना जायता सो अगु भादि कारणो मे उसकी उत्पत्ति