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________________ स्या० का टीका व िचिक स्वभावस्याऽपर्यनुयोज्यत्वादिति भावः । 'इति' उपदर्शितायाम्, 'अत्र' प्रकृतोपपत्ची च 'मान-प्रमाणं न विद्यते, निर्विकल्पकेन तदग्रहणात, तद्विषयत्वस्य निश्चयैकोन्नेयत्वादिति भावः । स्थूलखोत्याद इष्ट:=अभिमतः, अतस्तदन्यथानुपपत्तिरेवाऽतिषसाभकायासदजननस्वभावत्वेनोपादानस्योपेयहेतुत्वे मानमिति चेद ! 'असौ स्थूलत्वोत्पादः, तत्सद्भावेऽपि तेष्वणुषु कथंचित्सत्त्वेऽपि 'समः' -तुल्यनिर्वाहः । तथा च लाघवात् सज्जननस्वभावत्वेनयोपादानस्योपेयहेतुता, न स्वसदजननस्वभावत्वेन । इति सत्कार्यसिद्धिः ॥४८॥ अत्र कार्यस्य सत्त्वं पूर्वोत्तरकालयोः पर्यायार्थिकनयानुसारिणः पर्यायद्वारेणैवादिशन्ति, द्रव्यस्य निष्पन्नत्वेनाऽदलत्वात् । द्रव्यार्थिकनयानुसारिणस्तु तेन रूपेण द्रव्यस्यानुत्पन्नत्वाद् द्रव्य द्वारैवादिशन्ति । तदिदमुभयाभिप्रोयेणोक्तं सम्मतौन हो सकेगी। अणु आदि के इस स्वभाव के बारे में कारण की जिज्ञासा नहीं की जा सकती, क्योंकि 'अग्नि दाहक होता है, आकाश दाहक नहीं होता' अग्नि और आकाश के इस स्वभाव के बारे में जैसे कारण की जिज्ञासा नहीं होती उसी प्रकार किसी भी वस्तु के किसी भी स्वभाव के बारे में कारण को जिज्ञासा को उचित नहीं माना जाता।" इस पर सिद्धान्ता का कहना यह है कि स्वभाव के बारे में कारण की जिबासा को उचित भले न माना जाय, पर उसके प्रमाण के बारे में तो प्रश्न हो ही सकता है, और यदि वस्तु के किसी स्वभाव को प्रमाणसिद्धता का समर्थन न हो सके तो उसका त्याग करना ही होगा, अतः अणुओं के उक्त स्वभाव में कोई प्रमाण न होने से उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । प्रतिवादी के मत में निर्विकल्पकप्रत्यक्ष ही प्रमाण है, और वछ निश्चय सधिकल्पक रत्यक्ष ले अनुमित होता है। अणुओं का उक्त स्वभाव निश्चयगम्य न होने से निर्विकलाकगम्य भी नहीं माना जा सकता, अतः वह स्वीकार्य नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-"अणुओं से स्थूलत्व की उत्पत्ति इष्ट है, किन्तु स्थूलत्व को अपत् मानने पर भी यदि उसकी उत्पत्ति मानी जायगी, तो अन्य सभी अलत् पदार्थों के भी उत्पत्ति को आपत्ति होगी, अतः उपादान कारण का असत् । को उत्पन्न न करने का स्वभाव मान कर उत्पत्ति से पूर्व सत् ही स्थूलत्व की उत्पत्ति माननी होगी तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अणुओं में स्थूलत्य का कचित् सस्व मान कर तथा उपादानकारण को सदुत्पादकस्वभारमान कर भी स्थूलत्व की उत्पत्ति का समर्थन किया जा सकता है । इसलिये उपादानकारण का असत् को उत्पन्न , करने का स्वभाव अप्रमाणिक है । इस प्रकार सत्कार्यवाद कथञ्चित्सत्कार्यवाद रूप में मान्य है। [दो दृष्टि से पूर्वोत्तरकाल में कार्य की सत्ता] जगत् का प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेष उभयात्मक है । अर्थात् संसार के समस्त पदार्थों में परस्पर साम्य भी है और वैषम्य भी है। पदाथों की परस्पर विषमता ही शा.बा.१५
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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