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शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो०४९ 'पच्चुप्पन्नं भाव विगयभविस्सेहि जं सम्मपणेइ, एयं पडुच्चवयणं'।( का. ३-३)
इति । अत्र चाधाभिप्रायेण टीकाकृतोक्तम्, 'न चात्मादिद्रव्य विज्ञानादिपर्यायोत्पचौ दलं, तस्य निष्पन्नत्वाद्' इति । अन्त्याभिप्रायेण चोपचयमाह ग्रन्थकारः प्रकृते
मूलम्---न च मूर्ताणुसंधातभिन्न स्थूलत्वमित्यदः ।
__ तेषामेव तथाभावो न्याय्यं मानाऽविरोधतः ॥४९॥ न च मूर्तानां रूपवतामणूनां परमानना, संघालात्=परिणामविशेषाद् भिन्न स्थूलत्वं. मूर्तपदं चाक्षुषयोग्यत्वनिर्वाहाय, इतिहेतोः अदः स्थूलत्वं तेषामेव परमाणूनामेव, तथाभावः कथञ्चिदेकत्वपरिणामः न्याय्यं घटमानकम्, मानाऽविरोधतः = प्रमाणाऽवि. रोधात् । तदन्यभेदेन तत्त्वसाधनान्न हेतुसाध्ययोविशेषः । एवं च स्थूलत्वस्य मार्गाप द्रव्यरूपेण सर्व सिद्धम् ॥ उनका प्रातिस्विकरूप है और समानता ही उनका सामान्यरूप है। जैनदशन में सामान्य को द्रव्य और विशेष को पर्याय शक से अभिहित किया गया है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्याय उभयात्मक है। वस्तु के 'द्रव्य'-सामान्यअंश को ग्रहण करने वाली इष्टि को द्रव्याथिकनय, और 'पर्याय'-विशेष अंश को ग्रहण करनेवाली दृष्टि को पर्यायाचिकमय कहा जाता है। नय का अर्थ है, दृष्टि बुद्धि-विचार । उत्पत्ति के पूर्व और उत्पत्ति के बाद कार्य का ओ सत्त्व माना जाता है, वह पर्यायार्थिक भयवादी के अनुसार पर्यायों पर आधारित होता है । अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कोई एक पर्याय रहता है, व उत्पत्ति के बाद पहला पर्याय निवृत्त हो जाता है और दूसरा पर्याय अस्तित्व में आ आता है। इस रष्टि के अनुसार द्रव्य तो प्रथमतःसिद्ध होने के कारण उत्पति का भागी नहीं होता, सिद्ध को उत्पन्न क्या होना । द्रव्याधिनयवादी के अनुसार द्रव्य स्वरूपतः पूर्वसिद्ध होने पर भी पर्यायरूप में असिद्ध रहता है, अतः उत्पत्ति के पूर्व पर्व उत्पत्ति बाद के कार्य का सत्त्व द्रव्य पर आधारित होना है । अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कार्य का आधारद्रव्य पकपर्याय से रहता है और दूसरे पर्याय से नहीं रहता। उत्पत्ति के बाद पूर्व के पर्याय से रहना बन्द कर दूसरे पर्याय से रहने लगता है। इस लिये इस नय के अनुसार द्रव्य भी पर्यायों की उत्पत्ति में भागीदार होता है । सम्मानितर्क ग्रन्थ में पर्यायार्थिक, द्रव्याथिक दोनों अभिप्रायों से यह कहा गया है कि वर्तमान भाष (पदार्थ) को अतीत–अनागत पर्यायों से समन्वित करता है, वह वचन प्रतीत्य(सम्यग् बोधजन्य) वचन है"। सम्मतितर्क के दीकाकार ने पर्यायाथिकनय के अनुसार उक्तकथम की व्याख्या करते हुये यह कहा है कि 'आत्मा आदि द्रव्य विज्ञान आदि पर्यायों की उत्पत्ति का घटक नहीं होता, क्योंकि वह पहले से ही सिद्ध रहता है। सिद्ध की उत्पत्ति क्या ? किन्तु प्रस्तुतग्रन्थ के रचयिता हरिभवसूरि ने अपनी इस कारिका में द्रव्याथिक नय का अवलम्बन कर पायों के रूप में द्रव्य के उपचय आदि का वर्णन किया है.