SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो०४७ तिधीविषयत्वाऽभावादिति चेत् ! न, प्रध्वंसा प्राभिचारान् । विभिनयमावला. विषयत्वादिति चेत् ? न, 'पञ्चमं भूतं नास्ति' इति निषेधव्यवहारस्य जागरूकत्वात् । भूते पश्चमत्वं नास्तीति चेत् ? न, विकल्पविषयस्याखण्डस्यैव पञ्चमभूतस्य प्रतियोगित्वोल्लेखाभ्युपगमात्, अन्यथा इह पञ्चमं भूतं नास्ति' इत्यस्यानुपपसेः, त्वदभ्युपगमविरोधाच्च । ननु "एवं सत्कार्यवादसाम्राज्यापत्तिः, तथा च कार्यान्प्रागपि तदुपलब्धिप्रसङ्गः । अनाविर्भावाद् न तत्प्रसङ्ग इति चेत् ! न, अनाविर्भावस्य निर्वक्तु मशक्यत्वात् , उपलम्भाभावरूपत्वे तस्यात्माऽश्रयान्, व्यन्जकाधभावरूपत्वे च व्यजकादीनां प्राकपेसी बुद्धि का विषय न होने पर भी प्रध्वंस की उत्पत्ति होती है। विधि-निषेध अर्थात् अस्ति-नास्ति व्यवहार का विषय न होने से पञ्चमभूत की अनुत्पति है, यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि उसमें 'पञ्चमं भूतं नास्ति-पाँचवां भूत नहीं है', इस प्रकार के मिषेध व्यवहार को विषयता विद्यमान है। 'जसमं भूतं नास्ति' यह व्यवहार पाँचवे भूत के निषेध को नहीं विषय करता किन्तु भूत में पञ्चमत्व के निषेध को विषय करता है"-यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उक्त व्यवहार में विकल्पात्मक शान से उपस्थापित अखण्ड पञ्चमभून में अभावप्रतियोगित्व का पट उरलेस विद्यमान है । अर्थात् वस्तुगत्या सत् नहीं किन्तु वैकल्पिक पञ्चमभूत को उहिट कर उसी के निषेध का यानी धर्मा के ही अभाव का स्पष्ट उल्लेख किया गया है, न कि उस धर्मी में पञ्चमत्यरूप धर्म के अभाव का स्पष्ट उल्लेख । क्योंकि ऐसा न मानेगे तो 'इह पञ्चम भूतं नास्ति-इस स्थान में पांचवां भूत नहीं है। इस व्यवहार की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि इह और 'भूतम् ' में समानविभक्तिकत्व न होने से उक्त व्यवहार को 'इस भूत में पञ्चमत्व नहीं है। इस प्रकार भूत में पञ्चमत्व के निषेध का ग्राहक न माना जा सकने के कारण उक्त व्यवहार की अनुपपत्ति अपरिहार्य है। भूत में पञ्चमत्व के निषेध को उक्त व्यवहार का विषय मान कर पाँचवे भूत के निषेधव्यवहार को अङ्गीकार न करने में चार्वाक के अपने अभ्युपगम का भी विरोध है, क्योंकि उनके अभ्युपगम के अनुसार तो अलोक को भी अभावप्रतियोगिता होती है, अलीक का भी अभाव मान्य है। [कञ्चित् सदसत्कार्यवाद की सिद्धि] "पञ्चमभूत को अनुत्पत्ति यदि उसके असव के नाते मानी जायगी तो सभी कार्य स्वोत्पत्ति के पूर्व सत् होने से असत्व के नाते उन सभी की अनुत्पत्ति की आपत्ति होगी। आपत्ति के निवारणार्थ कार्यों को उत्पत्ति के पूर्व भी सत् मानना पडेगा, फलतः उत्पत्ति के पूर्व भी कार्य की उपलब्धि को आपत्ति होगी। 'कार्य के रहने पर भी उस का आविर्भाव न होने से उत्पत्ति के पूर्व उसकी उपलब्धि नहीं होती'-यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आविर्भाय के अभाव का निधन अशक्य है। जैसे कि-माविर्भाव का अभाव यदि उपलम्मामायरूप होगा तो उत्पत्ति के पूर्व कार्य की अनुपलब्धि को कार्य के मनुपलम्म से प्रयुक्त मानने पर आत्माश्रय होगा । और यदि व्यमकामाषरूप होगा तो
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy