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________________ स्या क० टीका ०वि० " किं तत् ? स्वप्रतीतौ व्यापारी वा विद्रूपस्य सत्ता वा नाथः कर्मणीव स्वात्मनि व्यापारानुपलम्भात् । न द्वितीयः, स्वतः प्रकाषायोगात् । अत एव न स्वसंविदितज्ञानत्वेनापि तथात्यम् सदसिद्धे, सिद्धौ षा प्रमाणान्तरप्रसङ्गात् 1 अथ सर्वशान्दानां 'घटम जानामि' इत्याकारत्वात् प्रत्यक्षेणैव स्वविषयत्वसिद्धिरिति चेत् न तत्र ज्ञानेऽपि स्वस्थ ज्ञानविषयत्वाऽग्रहात् स्वस्य स्त्राविषयत्वेन स्वविषयsav, अन्यथा 'चटज्ञानमानवशन्' इत्याकारप्रसङ्गात् 1 २४९ वभिन्न कान के विना भी अपरोक्षरूप से भालित होना है उसे भी प्रत्यक्ष कहा जाता है आत्मा इस दूसरे प्रकार के ही प्रत्यक्ष से व्यपदिष्ट होता है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि 'स्पभिन्नान के विना भी अपरोक्षतया प्रतिभासित दोने का निर्वाचन नहीं हो सकता; जैसे वह 'स्व की प्रोन वर्ष 'चित्र में तू दोना' यह उसका अर्थ है इस में पहले अर्थ का स्वीकार नहीं किया जा Rent क्योंकि ज्ञान के अन्य कर्म घटादि में जैसे ज्ञानानुकूल इन्द्रियसन्निकर्षादिरूप व्यापार प्रमाणिक है, इस प्रकार माध्मा में हाल कोई व्यापार प्रामाणिक (प्रमाणसिद्ध) नहीं है। दूसरे अर्थ को भी नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि आत्मा चि में सत् हूँ इस बात की सिद्धि भी प्रमाणसापेक्ष है, भतः प्रमाणात होने से स्वप्रकाशता की सिद्धि असम्भव है । !ज्ञान की स्वप्रकाशता का खंडन - पूर्वपक्ष ] यदि कि- 'स्वसंविदित ज्ञान का विषय होने से आत्मा को प्रत्यक्ष माना जा सकता है मीठीक नहीं है, क्योंकि स्वसंचिदिन स्वप्रकाश ज्ञानमसि है, और यदि शाम को शानारवेध मामले में अमवस्था आदि के कारण स्वयित्रित ज्ञान सि भी होगा, तो यही आत्मा का प्राइक अम्य प्रमाण होगा, मतः उससे माथ यत्मा को चाहे और कुछ कहा जाय, पर उसके द्वारा उसकी प्रत्यक्षता की उपपत्ति नहीं की जा सकती । यदि यह कहें कि "प्रत्येक काम किया स्वस्वरूप, कर्म-विषय और कर्ता स्वाथ्य इस त्रिपुटी का हक है। इसलिये समस्त ज्ञान 'घटम जानामि' इत्यादि आकार में ही उत्पन्न होते हैं जनः 'ठम ज्ञानामि' इस प्रत्यक्षज्ञान का विषय होने से हम आत्मा भी प्रत्यक्ष हो सकता है" तो टीक नहीं है, क्योंकि 'ज्ञानामि इस ज्ञान से घट तो ज्ञानविभ्यता का ग्रहण होता है, पर ज्ञान या भारमा में ज्ञानवियता का भरण नहीं होता है। इससे रूप होता है कि ज्ञान स्वयं तथा उसका आश्रय ये दोनों उसका विषय नहीं है इसलिये उक्त धान में घर के सम्मान ज्ञान एवं आत्मा में भी ज्ञानविपता का मान नहीं होता। यदि घट के समान ही ज्ञान पयं व्यमा भो ज्ञान के विषय होते तोशाम का उक्त आकार न होकर 'घटामतदाथ यज्ञामधान महम्' यह आकार होना किन्तु यह आकार नहीं होता, अतः 'प्रत्येक हाम त्रिपुटीविषयक होता है। यह कथन नप्रामाणिक है । था. की. ३२
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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