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शास्त्राच्यस्व १०८३
नवयमप्रत्ययों न प्रत्यक्षः इन्द्रियत्वेनेन्द्रिय नन्यज्ञानस्यैव प्रत्यक्षत्वात् अत वात्मापि मत्यक्षस्यव्यपदेशकमा प्रत्यक्षज्ञानविषयतयैव विषयस्य प्रत्यक्षश्वपदेशात् । 'स्पातिरिक्तानं विनाऽप्यपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात्प्रत्यक्ष आत्मेति चेतू ! [प्रत्ययो में विस्तृत पशंका पूर्वपक्ष
"
मन होता है कि प्रत्यय को प्रत्यक्षरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि जिस ज्ञान के प्रति इन्द्रिय इन्द्रियत्वरूप से कारण होती है, वही ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, अर्थात् इन्द्रियत्वाचिन इन्द्रियनिष्ठजन कता निरूपित जम्यतावसानथ ही पश्पक्ष का लक्षण है। लक्षण में इन्द्रियाभ्यजनकता का निवेश भावश्यक है, क्योंकि केवल इन्द्रियमिष्ठजनकानिपितजन्यतावानत्व को मत्यक्ष का लक्षण मानने पर सामा के मनोजन्य होने से अनुमिति आदि में प्रत्यक्ष लक्षण की मतिभ्याप्ति होगी। जनकता मैं इन्द्रियानिवेश के बाद शिवेश मेवल परिक्या होता है मन को शानमात्र में कारणना मनस्वरूप से होती है, इन्द्रियन्यरूप से नहीं होनी, गतः इयानकता का निवेश करने पर उक्त तिष्या नहीं हो सकती । * अनुमित्यादि को मनस्त्येन मनोज मानने पर उसमें मानसत्य की होगी पद का उचित नहीं है क्योंकि मनोजन्यस्य अर्थ में मानव ही हैं, हाँ, अनि है प्रापरव्यायमान सत्ष तो उसको आप नहीं हो सकती, क्योंकि उसका नियामक मनोज नहीं है, किन्तु मगः सन्निकर्षयत्व है, अनुमित्यादि मनःकर्मभ्य नहीं होता, अतः उसमें प्रत्यक्षत्वव्याप्यमानमत्य की पति नहीं हो सकती । यद्यपि चमादि इन्द्रियां बानुषादि के प्रति चक्षुष्षादिकर ले तो कारण होती है, अतः उन्हें इन्द्रियरूप से प्रत्यक्ष के प्रति कारण मानने में आपाततः मन्दीविस्य प्रतीत होता है, तथापि विशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरपि-जिन विशेष धर्मों द्वारा कार्यकारणभाव होता है. उन धर्मों के व्यापक धर्मों द्वारा भी कार्य कारण मात्र होता है इस नियम के अनुरोध से चाक्षुषत्वादि और पशुपाविरूप से कार्यकारणभाव होने पर पान के व्यापक अभ्यप्रत्यक्षत्व और त्राहि के व्यापक रूप से भी कार्यकारणभाव की सिद्धि होती है। इसके अतिरिक दूसरा नियम यह भी है कि 'जो धर्म कार्यमात्रवृति होता है वह यही कारणप्रयोज्य होता है इस नियम के अनुरोध से भी अन्यत्यक्ष के प्रति इन्द्रियत्वेन द्रिय में कार जता की सिद्धि होती है. अन्यथा चानुवस्यादि के वमादिभ्धरण से नियश्य होने पर भी जन्यप्रत्यक्षस्य किस से विषय न हो सकेगा हो तो अब पच्छि पितायवान् कान श्री प्रत्यक्ष होता है, तब अहं प्रत्यय उक्त जग्यता से शुन्य होने के कारण प्रत्यक्ष कप कैसे होगा ? और अब तक प्रत्यय प्रत्यक्षरूप नहीं होगा भो आमा भी प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकेगा ? क्योंकि विषय तो प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से ही प्रत्यक्ष शब्द से व्यपदिष्ट होता है ।
यदि कहें कि 'जैसे प्रत्यक्षाम के विषय को प्रत्यक्ष कहा जाता है मकार मो