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________________ २५० ५.. . ..... ... शास्त्रवासिनुवष-स्तवक र मो० ८३ किं च 'घटमई जानामि' इति ज्ञाने क्रियायाः कृतया समशायित्वलक्षणभारममा फत्वं, परसमवेतक्रियाफलशालिव करणव्यापारविषयत्न वा विषयस्य कर्मत्वम्, धात्वर्थस्वं कृतिजन्यत्वं वा ज्ञानस्य क्रियात्वमयोग्यत्याद न भासत इति न वाइसत्रिपुटीप्रत्यक्षात स्वसंविदितत्वसिदिः, अन्यथा घट चक्षुपा पक्ष्यामि' इति व्यवहारात करणविषयत्वमपि सिध्येद । किं च अहिषयफत्वेनैव शानस्य प्रवर्तकत्यम्, न तु स्वविषयत्वेनापि, गौरवात् । तथा च 'अर्थमात्रविश्यक एवं व्यवसायः' इत्यभ्युपगमः श्रेयान् । अपि च 'अहमिदं जानामि इत्यत्रेदन्यविशिष्टज्ञानवैशिष्ट्यमात्मनि भासते, न च स्वप्रकाशे तदुपपत्तिः, ज्ञानस्य पूर्वमशातत्वेन प्रकारवानुपपत्तेः । न भाभावत्याभानेऽप्य. त्रिपुट प्रत्यक्ष से स्वप्नकारत्व की सिद्धि दाशक्य] दूसरी बात यह है कि 'घरमहं जानामि इस यनुसन्य बाग में अहमध में कर्तृत्व, घट में कर्मत्र और शान में क्रियात्व का भान हो भी नहीं सकता, क्योंकि फियासमपायित्व प्रथया कतिसमधायियही कतृत्त्य है. पर्व परसमयेनियाजन्म्यफल शालित्य अश्यया फरण व्यापारविषयस्य धी कमरख है मथा धावन्य गथया कृतिजन्यत्य ही क्रियान्य है और यह सब उक्त नाम के समक बन के अयोग्य है । अमः प्रत्यक्ष में कर्ता, कर्म और क्रिपा, इस त्रिपुटी की पगालफसा सिाद न होने से निपुटीविषयकयक्ष से कान में स्वसंधिदितत्व की निधि को आशा नुराशा मात्र है। और यदि 'घठमई मानामि' इस ग्यपहार के अनुरोध से घमान में विषयकन्व और क्रियाविषयकाष की कल्पना करेंगे तो 'घटं पानुषा पक्ष्यामि' सञ्चबहार के अनुरोध से पटमाम में पाविषयकाव भी मिज होमे से सच को भी घटदिशाक्षुष का विषय मानना पड़ेगा। जमके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि विपर्याधशेष में जाना को प्रवृत्त करना तथा विषयविशेष से माता को निवृत्त करना ही पान का प्रयोजन है। अतः जिस वस्तु को जान का विषय माने विमा इस प्रयोजन की सिजिद न हो उसे ही ज्ञान का विपय मानना चित है। पंसी वस्तु फेयल हातव्य अर्थ ही होता है. शान-शाना या प्राग का साधन महों होता । अतः अले बाम का साधम वन आदि को पान फा विषय मानना भ्यर्थ होता है । उसी प्रकार माम या ज्ञाता को भी ज्ञान का विषय मानता व्यर्थ प्रत्युत पसा मानने में निमायोजन गौरवमान है। अत: व्यवसाय शानसामनी मे सम्निधान के अनन्तर उत्पन्न होने पाला पहला ज्ञान अर्थमात्र यवराक ही दोता ६ या मत ही श्रेष्ठ है। यह भी शाशय है कि अमित जानामि' इस शान में अहम आत्मा में प्रत्यथिशिविषयकलाम के वैशिया भास होता, किन्तु ज्ञान यदि स्वप्रकाश होगा तो श्योपत्ति के पूर्ष भास होने से स्य में पारविष्या भासित न हो सकेगा क्योंकि तामकारक शान में तविषयक शाम कारण होता है, अनः 'घटमर जानामि' इस बानप्रकारकहानपूर्व हान का शान आवश्यक जी मान के स्वप्रकाशवपक्ष में उन शाम के पूर्व दुर्घट है, क्योंकि उल पक्ष में वह मान ही शान का पता लान । यदि यह को वि-समावस्य
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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