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________________ पा० का टीका व हि. वि. २५३ दृष्टव्यम् । तेनानुपदोक्तनियमे 'विघामा मान्यजनात्यावि: या बारमाया मागतत्वस्थानेऽजनकत्वस्य निवेशावश्यकत्वे प्रत्यासत्पादिमागमपहायाऽजनकविषयसासात्कारान्यप्रत्याविषयताया एव प्रत्याशजनकत्वच्याप्यत्वकल्पमे स्वस्याऽजनकत्वेन स्वविषयतायां जनकत्वस्याऽनियामकत्वेन स्वविषयता न बाधिता' इत्युक्तावपि न क्षतिः । किं च लौफिकविषयत्वेन कापशादिन्द्रिययोम्पत्वालागस्य परिशेषाद् मनोग्राबस्वसिद्धो न स्वप्रकाशत्वम् । किं च, एवमनुमित्यादी सांकर्यात प्रत्यक्षत्वं जातिर्न स्थाद । [पूर्वोक्त नियम में दोष पूर्वोक्त नियम में भर्थात् 'प्रमागरागो परसाक्षाकारजनकप्रन्यासस्यजन्यप्रत्यक्षयियता प्रत्यक्षामकता का व्याप्य है इस नियम में पक दोष यह है कि विद्यमानम्वरूप सामान्य लक्षणाप्रत्यासति विद्यमान के श्री साक्षात्कार का नामक होने से मनामनगोचरसाक्षात्कार का अनक नहीं है। अतः उस से अन्य सम्पूर्ण विधमानविषयकमन्यन अनागतगीमरसाझास्कारजनकमत्पासात से अमन्य है। उस प्रत्यक्ष की विषयता में उस प्रत्यक्ष के नाममकरस्थ विद्यमान पदार्थ में प्रत्यक्षमनकता का पभिखार है. इस व्यभिचार के पार णापे 'समागत' के स्थान में 'अजनक' का निवेश करने पर 'अजनकगोचरसाक्षात्कारजमकास्थासस्यजन्यत्व' की अपेक्षा प्रत्यक्ष में 'श्वजनविषयकसाक्षाकारास्यत्व के निवेश में लापव होगा, सोर अप उसका निवेश कर यह नियम बनाया सायगा कि 'समक विषयकलाक्षात्कारान्यप्रत्यक्षविषयता प्रत्यक्षजनकता का व्यापय है, तो इसके आधार पर प्रत्यक्षात्मक शान में प्रत्यक्षाजनकस्य से उक्त प्रत्यक्षविषयश्व का साधन न किपा मा सकेगा, क्योंकि स्त्र स्व का अजनक है, अनः स्व को विषय करने वाला स्यात्मकप्रत्यक्ष मानकविषयकमाक्षात्कार है. अतः प्रत्यक्षमाव से अजनविषयकसानाकास्यप्राय विषयस्वाभाष का साधन करने से भी अजनकविषयकसाक्षात्कारात्मक स्वात्मकप्रत्यक्ष विषयता का बाध स्व में नहीं हो सकता । .ज्ञान मात्रा है-पक्ष अनुवर्तमान ज्ञान को स्यमकाश-स्वास्मशान से प्राहा मामले में एक गौर भी पाधक है, पर या कि प्रामाविभिगो लौकिकविषयः इन्द्रिययोग्य' इसकी अपेक्षा साव होने से यह नियम माम्यहै कि 'यो यो लोकिको विषयः स इन्द्रिययोग्य' । इस नियम के आधार पर लौकिकविषयत्वहेतु से शाम में भी इन्द्रियागयत्व सिद्ध होता है । कान में चक्षुरादिवहिरिन्द्रिययोग्यय का बाघ होने से परिशेयानुमान से उस में मनोरूपम्बियप्राध्यस्य की सिद्धि होती है अतः हान में मामोमास्यत्व प्रमाणसिद्ध होने से असे स्वप्रकाश नहीं माना जा सकता । दूसरी पान यह है किवान के नकारात्घ पक्षमें सभी हाल स्पषकाच होगे । फलना अनुमिन्याविरूप बान भी स्यप्रकाश होने से अपने स्थकप को और अपने श्राश्रय को विषय करेगा। सबसुलार धूप में याहिटगाप्ति और पर्वत में धूपसम्पान के मान से अथपा पर्वत में हिच्याप्यम के परामर्श से मो पर्वत में पति की ममिति होगी यह 'पर्वते यहि वधिमस्वेन पर्वत', वकिमपर्वत या मनुमिनोमि' इस आकार को होगी । यह अनुमिति पनि पर्यन के सम्बन्ध अंश में शामितिरूप मौर
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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