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स्था० का टीका बहि. वि०
११७ पेसा मानने पर यदि यह प्रश्न उठे कि-"यो धूमधान सोऽग्निमान्' यह संस्कार तो घुमवस्वरूप से ही पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता है, पर्यतत्वमादिरूपों से तो पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता नहीं तो फिर वह 'पर्वतोऽग्निमान्' इस रूप में कैसे उबुद्ध हो सकेगा "-तो इसका उत्तर यह है कि 'यो यो धमयान् स सोऽग्निमान्' का अर्थ है 'यद्यद्धर्माधच्छिन्नो धमवान् तत्तधर्मावच्छिन्नोऽग्निमान्' । इस प्रकार यह शान और इससे उत्पन्न संस्कार धमाश्रयता के अवच्छेवक पर्वतत्वमादिरूप से ही पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता है । अतः इस संस्कार के 'पर्वतो धमघान्' इस शान से 'पर्वतोऽग्निमान्' इस रूप में उबुद्ध होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि 'पर्वतो धमयान्' यह शान धमाश्रयता के अवच्छेदकरूप से पर्वतत्व को विषय न कर स्वरूपतः पर्यसत्य को विषय करने के कारण उक्तसंस्कार को धमाश्रयतावच्छेवकत्वअंश में उबुद्ध न कर स्वरूयतः पर्वतत्वांश में हो उबुद्ध कर सकता है। ____"किसी विशेष अंश में उद्बुद्ध न होकर अन्य अंशो में ही उद्बुद्ध होना और अनुद्योधित अंश को छोड कर अन्यअंशो में ही विसरशस्मृति को उत्पन्न करना" संस्कार के विषय में पाक की यह एकमात्र अपनी ही कल्पना नहीं है, अपितु यह तथ्य शब्द आदि को प्रमाण मानने वाले दार्शनिकों को भी मान्य है। इस सम्बन्ध में उदाहरण के रूप में 'तत्' पद को प्रस्तुत किया जा सकता है । यह सभी को मान्य है कि जो भी पदार्थ प्रथमतः बुद्धिस्थ रहता है, तत्पन् से उस सभी का बोध होता है, इस लिये बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वरूप से भासमान घटत्व, पटत्य आदि समस्त घर्मों से विशिष्ट अर्थों में 'सत्' पद की शक्ति मानी जाती है।
उस शक्ति का शान 'बुद्धिचिषयतावच्छेदकावच्छिम्नः तत्पदशक्यः'-मर्थात् बुद्धिविषयतावच्छेदक का आश्रय तत्पद का शक्य होता है' इस रूप में होता है। इस ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला संस्कार बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वरूप से घटत्व, परत्व, आदि समस्तधर्मों से विशिष्ट अर्थ में तत्पर की शक्ति को विषय करता है । जब कभी कोई मनुष्य 'तत्' पद को सुनता है, तष उसे जिस प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ में बुद्धिविषयताचच्छेदकधर्म का शान होता है, अथवा जिस प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ उसे बुद्धिस्थ होता है, तरपद की शक्ति को विषय करनेवाला उक्तसंस्कार उसी प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ में उन्धुम होता है, और उसके द्वारा तत्पद से उसी प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ की स्मृप्ति होती है। जैसे 'गृहे घटा, तमानय' इस प्रकार के पाक्य को सुमने पर श्रोता को 'घट' शब्द से स्वरूपतः घटत्यविशिष्ट अर्थ बुद्धिस्थ होता है, अतः उक्त वाक्य में आये तत्पद से स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट अर्थ की ही स्मृति होती है, क्योंकि स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट को बुद्धिस्थ बनाने वाले तत्पद के शान से तस्पद की शक्ति को विषय करने वाला उक्त संस्कार बुद्धि विषयतावच्छेदकस्य अंशमें उद र न होकर स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट में ही उवुद्ध होता है, और उससे 'युद्धिविषयतावच्छेदका घच्छिन्नः तत्पदशक्यः' ऐसी स्मृति न होकर 'घटः तत्पदशक्य.' इस प्रकार की हो स्मृति उत्पन्न होती है। यदि इस प्रकार की स्मृति को उत्पत्ति म मानी जायगी तो सपनघटितवाक्य से स्वरूपतः घटत्व आदि से विशिष्ट अर्थ का बोध न हो सकेगा, और उसके फलस्वरूप तत्पद्घटित वाक्य से लोकव्यवहार का उच्छेद हो जायगा ।