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शास्त्रातसमुच्चय- स्तबक १ लो० १९
अथ 'यो धूमवान् सोऽग्निमान्' इति व्याप्तिज्ञानं धूमवच्चावच्छेदेन ि प्रकारकं तथैव स्मृतिमनुमितिस्थानीयां जनयतिः पर्वतत्वांश उद्बुद्धसंस्कारसहकृताद वा ततः 'पर्वतो वह्निमान' इति स्मृतिः, यथा बुद्धिविषयतावच्छेदकाविच्छन्नशक्तादपि तत्पदाद् निरूक्तशक्तिग्रहाडितसंस्कारेण तत्तद्धर्मावच्छिन्नशक्त्यंश उद्बुद्धेन सहकृतात् पर्वतत्वादिविशिष्टोपस्थितिरिति चेत् ? न, विशिष्योद्बोधक हेतुत्वे गौरवाद् हेत्वाभासादिवैकल्यप्रसङ्गाच |
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उत्पन्न होने वाले शान को संशय नहीं माना जा सकता ।
पर्व स्मृति भी समानाकारक अनुभव से उत्पन्न होती है । उक्तशान से पूर्व सर्वत्र उस ढंग के अनुभव का होना प्रामाणिक नहीं है, अतः समानाकारक अनुभव से उत्पन्न न होने के कारण उक्तवान को स्मृति भी नहीं कहा जा सकता ।
( परामर्श से अनुमितिरथानीय स्मृति के जन्म की मान्यता )
इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि महानस चत्थर आदि कई स्थानों में धूम के साथ वह्नि को देख कर इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान का होगा प्रायः सभी को मान्य है कि 'भो जो धूमधान होता है वह सब अग्निमान् भी होता है । यह पाप्तिज्ञान धूमवrane से भासित होने वाले पर्वत आदि सभो धूमाश्रय देशों में विशेषणविधया अग्नि को विषय करता है। इस शान से इसी प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है, जो मनुष्य के भीतर सुरक्षित रहता है। इस संस्कार से युक्त मनुष्य जब कभी दूर से पर्वत आदि में धूम को देखता है तब उसका यह संस्कार उबुद्ध हो जाता है, और इसके फल स्वरूप उसे इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न होती है। यह स्मृति हो अनुमिति का स्थान ग्रहण करती है, इसी से धूम के माश्रय पर्वतभादि पर धूमार्थी मनुष्य के गमन आदि व्यवहारों की उपपत्ति होती है। अतः धूम के परामर्श से अग्नि के अनुमित्यात्मक अनुभय की उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ऐसा मानने पर यदि यह प्रश्न हो कि "धूमार्थो को पर्वत पर जाने के लिये उसे 'पर्वतोऽनिमान्' इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है, और यह शाम 'जो जो धूमवान् है षह सब अग्निमान् है' इस प्रकार के अनुभव और संस्कार से नहीं उत्पन्न हो सकता क्यों कि अनुभव और संस्कार अपने ही जैसी स्मृति उत्पन्न करने में समर्थ होते है”- सो इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि 'जो जो धूमवान् है यह सब अग्निमान् है' इस संस्कार से भी 'पर्वतो धूमवान्' इस प्रकार के ज्ञानरूप उद्बोधक के सहयोग से 'पर्वतो वह्निमान्' इस प्रकार की स्मृति का जन्म हो सकता है। कहने का आशय यह है कि उक्त संस्कार धूमवस्वरूप से भासमान पर्वतआदि सभी धूमाश्रय देशो में अग्नि को विषय करता है । अतः सामान्यरूप से तो उस संस्कार से धूमवस्वरूप से ही पर्वत मादि में अग्नि की स्मृति उत्पन्न होती है, किन्तु जब 'पर्वतो धूमवान्' इस प्रकार के ज्ञान से उक्त संस्कार उद्बुद्ध होता है तब वह "यो धूमवान् सोऽग्निमान" इस रूप में उबुङ न होकर 'पर्वतो द्विमान' इसी रूप में उबुद्ध होता है । अतः उससे 'पर्वतो हिमान' इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं हो सकती ।