SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११५ स्या० का टीका व हिं० वि० 'अथ शब्दतदुपजीविप्रमाणयोरेवाऽनादरश्चार्वाकाणां, तन्मूलभूताऽऽप्ताऽनावासात् , अनुभवसिद्धस्त्वर्थों नाऽपोतुं शक्यः । अत एव तान्त्रिकलक्षणलक्षितमेवानुमानं प्रतिक्षिप्यते, तादृशप्रत्यक्षवत् , न तु बालगोपालसाधारणामलादिप्रतिपत्तिरूपम् , अन्यथा व्यवहाराऽनिर्वाहात् । न हि धूमपरामर्शात् 'पर्वतो वह्निमान्' इति ज्ञानं जायमानं संशयरूपं स्मृतिरूपं वा सम्भवति 'सन्देहिम, स्मरामि इत्यननुसन्धानात् । किंच परामर्शस्य निश्चयसामग्रीत्वाद् न संशयहेतुत्वं, 'पर्वतो वह्निमान्' इति पूर्वमननुभवाच्च न तादृशी स्मृतिः। घट के संसर्गाभाव का बोध होता है। इसीलिये 'अयं न श्यामः' इदानी घटो न श्यामः' इन वाक्यों में आये 'म' शब्द को संसगाभाध का बोधक न मान कर अन्योन्याभाव काही बोधक मानना होगा, और यह तभी सम्भव है जब काल भेद से भेद और अमेद के पकत्र समावेश का स्वीकार किया जाय ।" विद्वानों के इस कथन के विरोध में प्राथकार का कहना यह है कि-भूतचैतनिक के मत में पृथिरी आदि मार तत्वों से भिन्न किसी पदार्थ का स्वोकार न होने से उक्त मत में कालपदार्थ अलीक है, अतः उसके द्वारा उक्त प्रकार के समाधान की सम्भावना नहीं की जा सकती। (लोकसिद्धमनुमानप्रामाण्यवादी नव्यचावीक का पूर्वपक्ष) चार्वाक के नये अनुयायियों का कहना है कि शब्दप्रामाण्य के मूलभून आप्तपुरुष के अस्तित्व में विश्वास करने का कोई आधार न होने से चार्वाक को शब्द ओर शब्दोपजीवी प्रमाण ही अमान्य है। लेकिन अनुभवसिद्ध अर्थ का अपलाप नहीं हो सकता है, इसलिये धूम को देखकर धूम के उत्पत्तिदेशपर्वत आदि में अग्नि के अस्तित्व का जो शान बालगोपाल सभी को होता है उसका प्रामाण्य चार्वाक को अमान्य नहीं है, क्यों कि उस ज्ञान को अप्रमाण मान लेने पर उसके द्वारा होने वाले लोकव्यवहार की उपपत्ति अन्य प्रकार से न हो सकेगी। इसीलिये चार्याक न्यायादितन्त्रोक्तधिधि से सम्पन्न होने वाले अनुमान का ही खण्डन करते हैं, लोकसिद्ध अनुमान का खण्डन नहीं करते। चार्वाक की यह दृष्टि अनुमान के सम्बन्ध में ही सीमित नहीं है, किन्तु प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में भी उनकी यही दष्टि है। वे शास्त्रोक्तविधि से सम्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष को भी प्रमाण नहीं मानते, किन्तुं सर्वसाधारणमनुष्य को लोकसम्मत रीति से जो प्रत्यक्ष होता है उसे ही घे प्रमाण मानते हैं। इसीलिये न्याय--वैशेपिक शास्त्रों में वर्णित किसी भी प्रकार का अलौकिक प्रत्यक्ष उन्हें मान्य नहीं है। चार्वाक का कहना है कि पर्वत में धम के परामर्श से इस पर्वत में अग्नि है.' इसप्रकार पर्वत में अग्नि के अस्तित्व का जो शान होता है, उसे संशय या स्मृति नहीं माना जा सकता, क्योंकि संशय या स्मृति रूप में उसका अनुभव नहीं होता । उनका यह भी कहना है कि परामर्श निश्चय का कारण है, अतः उससे संशय का जन्म नहीं हो सकता । इसलिये उससे १-'अथ' इत्यस्य ११९ पृ.ठे 'चेत् !' इत्यनेन सह सम्बन्धः ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy