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________________ शस्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो. ३९ __ अतः जिस प्रकार बुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिम्न में तत्पद के शक्तिशान से उत्पन्न संस्कार विशेष उद्बोधक द्वारा बुद्धिविषयतावच्छेदकत्व अंश में उद्बुद्ध न हो कर स्वरूपतः घटत्य आदि में ही उन्बुद्ध होकर स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट अर्थों में तत्पदको शक्ति को विषय करने वाली स्मृति को उत्पन्न कर तत्पद से स्वरूपतः घटस्वादिविशिष्ट की उपस्थिति उत्पन्न करने में सहायक होता है, उसी प्रकार धूमा. प्रयतावच्छेनक पर्वतस्वादिविशिष्ट में अग्नि को विषय करने वाला संस्कार भी 'पर्वतो. धूमवान्' इस प्रकार के कानरूप विशेष उद्बोधक द्वारा धमाश्रयतावच्छेदकत्व अश में उद्बुद्ध न होकर स्यरूपतः पर्वतत्वादि अंश में हो उखुख होकर 'पर्वतोऽग्निमान्' इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न कर सकता है। फिर इस स्मृति से ही आवश्यक व्यवहार की उपपत्ति हो जाने से 'पर्वतोऽग्निमान्' इस प्रकार के अनुमित्यात्मक अनुभव की उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। (गौरवादिदोषप्रदर्शन) धूमपरामर्श से पति की स्मृति मान कर उसके द्वारा यहि को अनुमिति को गतार्थ करने वाले याठियों के उक्त कथन के प्रतिवाद में ग्रन्थकार का कहना यह है कि-स्मृति के प्रति उद्योधक को विशेषरूप से कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में गौरव होता है, अतः धूमदर्शन सामान्यरूप से ही 'यो धूमपान सोऽग्निमान्' इस संस्कार का उरोध कर उस आकार की ही स्मृति को उत्पन्न करता है, न कि विशेष रूप से उक्तसंस्कार का उद्बोधन कर विशेष प्रकार की स्मृति को उत्पन्न करता है। इसी प्रकार तत्पद का शान भी सामान्यरूप से हो तत्पर की शक्ति को विषय करने वाले 'बुद्धिविषयतावच्छेदकावछिन्नः तत्पनशक्यः' इसप्रकार के संस्कार को उबुख कर उसी प्रकार की स्मृति उत्पन्न करता है। तत्पदघटित वाक्य से स्वरूपतः घटस्वादिविशिष्ट की स्मृति और स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट की शज अनुभूति तो इसलिये होती है कि बुद्धिविषयतावच्छेदकावरछेदेन तत्पशक्ति को विषय करने वाले मान से 'घटादिः बुद्धिविषयतावच्छेदकधर्मवान्' इस प्रकार के ग्राम के सहयोग से 'घटादिः सत्पद शक्य इस प्रकार का स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट में भी तत्पद की शक्ति का शान हो जाता है, और उस शान से उत्पन्न संस्कार कालान्तर में सत्पद के शान द्वारा उद. बुख छो कर उस प्रकार की स्मृति उत्पन्न कर देता है। यह स्मृति ही तरपद से स्व. रूपतः घटत्व आदि से विशिष्ट अर्थ को स्मृति और शाद अनुभूति की उत्पत्ति के लिये उसकी सहायक होती है। उक्तरीति से धम परामर्श से बह्नि की स्मृति मानने में एक विशेष प्रकार की बाधा भी है। वह यह कि-यदि धूमपरामर्श से 'यो धूमवान् सोऽग्निमान्' इस प्रकार के शान द्वारा उत्पम्न संस्कार का विशेष रूप में उदयोध मान कर उससे वहि को स्मृति का उदय माना जायगा तो हेस्वाभासों का विलय हो जायगा । काने का आशय यह है कि-हेत्वाभासों को दोष इस लिये माना जाता है कि उनसे अनुमिति, व्याप्तिशान अथवा परामर्श का प्रतिबन्ध होता है, किन्तु हेतुदर्शन से प्रथमतः विद्यमान हेतुमस्यावच्छेवेन साध्यसम्यन्ध को विषय करने वाले संस्कार का
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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