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________________ स्या क० टीका बहि. वि. तथाप्यनुमित्यभ्युपगमे प्रमाणान्तरप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अनुमितिस्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वात् । 'यहि न साक्षात्करोमि' इति प्रतीतेर्गुरूत्वादाविव लौकिकविषयताऽभावादेवोपपत्तेः । युक्तं चैतत् , अनुमितित्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषादिसामग्रीप्रतिबन्धकत्वाऽकल्पने लावादिति । तथा च 'इदानी घटः' इत्यादिप्रतीत सम्बन्ध घटकसया, परत्वादिलिनेन वा कालसिद्धिरिति नव्यचार्वाकाशय" इति चेत् । उत्सोधन मानकर यदि पक्ष में साध्य की स्मृति मानी जायगी, तो उसका या उसके किसी कारण का प्रतिबन्धक न होने से हेत्वाभासों को दोष मानना सम्भव न हो सकेगा। अतः हेतु के परामर्श से पक्ष में साध्य की स्मृति मान कर उसके द्वारा अनुमिति को गतार्थ नहीं किया जा सकता । (नव्यचार्वाक के मत में अनुमान-प्रमाणान्तरप्रसङ्ग नहीं है) "हेतु दर्शन से साध्य की स्मृति न मान कर साध्य की अनुमिति मानने पर यह प्रश्न उठ सकता है कि 'यदि अनुमिति एक अतिरिक्तप्रमा है तो उसके अनुरोध से अनुमान नामक अतिरिक्त प्रमाण भी मामना पड़ेगा, और यदि उसे भी मान्यता प्रवान की जायगी तो उस दशा में 'एक मात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य कोई प्रमाण नहीं है, 'इस चार्वाक सिद्धान्त की रक्षा कैसे होगी ?" स प्रश्न के उत्तर में सार्वाक की और से यह कहा जा सकता है कि-मन मिति कोई अतिरिक्त प्रमा नहीं है. शिस्त वह पक प्रकार का मानस-प्रत्यक्ष इस प्रकार अनुमितित्य मानसत्व का ध्याष्य धर्म है, न कि मानसत्व का विरोधी धर्म है । ऐसा मानने पर यदि यह शंका की जाय कि-"यदि अनुमिति मानसप्रत्यक्ष रूप है तो धम परामर्श से वह्नि का मानसप्रत्यन होने पर “वहिं साक्षात्करोमि-मैं घह्रि को प्रत्यक्ष कर रहा हूँ' इस रूप में उस मानसपत्यक्ष का संवेदन होना चाहिये, पर ऐसा न होकर उसके विपरीत यह संवेदन होता है कि-बहिं न साक्षात्करोमि-मैं धति का प्रत्यक्ष नहों कर रहा हूँ'-तो ऐसा क्यों होता है ?"-इस शङ्का का समाधान केवल इतना ही है कि 'पश्यामि, साक्षात्करोमि' इत्यादिरूप उसी वस्तु के प्रत्यक्ष का संवेदन होता है जिसमें उस प्रत्यक्ष की लौकिकविषयता होती है। जैसे,-घट साक्षात्करोमि, परं पश्यामि' इत्यादि। किन्तु जिस वस्तु में प्रत्यक्ष की लौकिकविषयता नहीं होती उस वस्तु के प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मक संवेदन नहीं होता, जैसे, न्यायादि मतों में गुरुत्य का मानसप्रत्यक्ष होने पर भी गुरुत्व में प्रत्यक्ष की लौकिकवियषता न होने से 'गुरुत्वं साक्षात्करोमि पेसा न होकर 'गुरुत्वं न साक्षात्करोमि' पेसा ही संवेदन होता है। उसी प्रकार धमपरामर्श से वह्नि का मानसप्रत्यक्ष होने पर भी 'वह्नि साक्षात्करोमि' इस प्रकार उसका संवेवन न हो कर वह्नि न साक्षात्करोमि इसी प्रकार का संवेदन होता है। विचार करने पर उक्त कल्पना ही युक्तिसंगत प्रतीत होतो है, क्योंकि अनुमिति को यदि मानसप्रत्यक्ष ने मान कर अतिरिक्तप्रमा माना जायगा तो जय जिस विषय की अनुमितिसामग्री के साथ उस विषय के चाक्षुषादिप्रत्यक्ष की भी सामग्री सन्निहित होगो तब उस विषय की अनुमिति के प्रति उस विषय के चाक्षुषादिप्रत्यक्ष
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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