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________________ १२० शास्त्रवासिमुध्यय-स्तवक १ प्रलो० ३९ की सामग्री को प्रतिबन्धक मानना पडेगा, अन्यथा उस समय उस विषय की अनुमिति के भी उत्पन्न होने को आपत्ति होगी । किन्तु अनुमिति को यदि अतिरिक्त प्रमा न मान कर मानसप्रत्यक्षरूप माना जायगा तो उक्त रीति से प्रतिबन्धक को कल्पना आवश्यक न होगी, क्योंकि अन्य प्रत्यक्ष की सामग्री की अपेक्षा मानसप्रत्यक्ष की सामग्रो के दुयल होने से मानसप्रत्यक्ष के प्रति बाक्षुषादिप्रत्यक्ष की सामग्री को प्रतिवन्धकता सर्वसम्मत है। तो इस प्रकार प्रतिबन्धक की कल्पना में लाघव के अनुरोध से भी हेतुदर्शन के अनम्तर होने वाली साध्यबुद्धि को मानसप्रत्यक्षरूप मानना ही उचित है। (प्रतीति और लिङ्ग से कालपदार्थ की सिद्धि) उक्त रीति से हेतुदर्शन से साध्य के मानसप्रत्यक्ष के उदय को मान्यता सिद्ध होने के फलस्वरूप यह असन्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि-कालसाधक हेतु के सुलभ होने से काल की सिदि भी निर्विवाद है। जैसे, "इवानी घटः-अस्यां सूर्यक्रियायां घटः-सूर्य की अमुक क्रिया में घट है" इस प्रकार की बुद्धि का होना सर्वमान्य है। यह बुद्धि सूर्यक्रिया के साथ सम्बन्ध को विषय करतो है। यह सुनिश्चित है कि सूर्य क्रिया के साथ दूरस्थ घट का कोई साक्षासम्बन्ध सम्भव न होने से कोई परम्परा सम्बन्ध बी मानना होगा, और यह तभी हो सकता है जब सूर्य और घर को जोग्ने वाला कोई पदार्थ हो, जिसके द्वारा सूर्यक्रिया के साथ घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसम घायरूप परम्परासम्बन्ध बम सके । काल एक ऐसा व्यापक पदार्थ है जो एक ही समय सूर्य और घट दोनों से संयुक्त होता है, फलतः घट से संयुक्त होता है काल और काल से संयुक्त होता है सूर्य, और सूर्य का समवायसम्बन्ध होता है उस की क्रिया के साथ । अतः सूर्यनिया के साथ घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायरूप परम्परासम्बन्ध उत्पन्न होता है। "इदानों घटः" यद प्रतीति सूर्य क्रिया के साथ घट के इस परम्परासम्बन्ध से ही सम्पन्न होती है, और इस सम्बन्ध के घटकरूप में ही काल की सिद्धि होती है। परत्व-ज्येष्ठत्व और अपरत्व-कनिष्ठत्व । ये दोनों गुणात्मकधर्म पूर्व और पश्चात् उत्पन्न होने वाले द्रव्यों में प्रत्यसिद्ध है। जिन द्रव्यों में इन गुणों का प्रत्यक्ष होता है, घे द्रव्य इनके समवायिकारण होते हैं. उन द्रव्यों में बहुतर सूर्यक्रिया तथा अल्पतर सूर्यक्रिया का सम्बन्ध ज्ञान क्रम से उनका निमित्तकारण होता है और उन द्रश्यों के साथ किसी अतिरिक्तद्रव्य का संयोग उनका असावायिकारण होता है। उन द्रव्यों के साथ जिस द्रव्य का संयोग उन द्रव्यों में उत्पन्न होने वाले परत्व-अपरत्व का असमवायिकारण होता है उसे लायवतर्क के आधार पर एक और विभु माना जाता है। यदि उसे एक न मामा जायगा तो विभिन्नद्रव्यों में परत्व-अपरत्व को उत्पत्ति के लिये अनन्तद्रव्यों की गुरुतर कल्पना करनी होगी, पचं यदि उसे विभु न माना जायगा तो दूरस्थ-समीपस्थ अनेक व्यों में उसका युगवत् (पककालीन) संयोग न हो सकने से उनमें परस्व-अपरत्व की युगपत् उत्पत्ति न हो सकेगी । तो इस प्रकार परत्व-अपरत्व के असमाथिकारण को उपपन्न करने के लिये जिस द्रव्य की सिद्धि होती है उसे ही काल कहा जाता है, परत्व-अपरत्व के द्वारा सिद्ध होने के कारण उसे परत्वादिलिाक भी कहा जाता है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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