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मुथ स्वयंक १ लो० ८६
ननु यधे स्वतः प्रकाश एवात्मा तदा सदा कि न कर्तृ- क्रियाभावेन प्रकाशते !
इत्यत आह
मूकम् आत्मतात्म तस्य तत्स्वभावत्वयोगतः सवाणं हा विज्ञेयं दोषः ॥ ८६ ॥
आत्मना
त्मनः
अधिकत तत्स्वगावलायोगतः तादृशज्ञानजननशक्तिसमन्वितत्वात् 'उपपाद्यमानायाम्' इति शेषः ह निश्चितम् एव अह जाने' इत्याद्यु लेखेन सदैव = सुत्यादावपि महणम्अमतिसन्धानम्, फर्मदाक्तः = तथा प्रतिबन्धकज्ञानावरण साम्राज्यात् ज्ञेयम् ।
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ननु एवं त्यज्यतां स्वप्रकाशाऽऽग्रहः इन्द्रियाद्यमासदेव तदाऽग्रहणोपपते न च
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त्रता के अनुभव से धर्थवित्रता की तथा उसी से ज्ञान की सिद्धि में भी कोई बाबा नहीं है। अतः माध्यमिक का उत्तम निस्सार है। इस विषय का विशेष विवे न आगे किया जायगा ।
प्रकाश में सदाग्रहण की आप का परिहार )
प्रस्तुत विचार के सन्दर्भ में यह यक्ष उडता है कि "यदि आत्मा स्वप्रकाशशान स्वरूप है स आत्मा को कलरूप में और ज्ञान को किप्रारूप में ग्रहण करनेवाले भई आपने' इस प्रकार के ज्ञान का उदय सदैव सुपुप्ति आदि के समय भी होना चाहिये, क्योंकि आत्मा सुपुति के समय भी रहता हूँ और उसके स्वप्रकाशज्ञानस्वरूप होने से उनके ज्ञान के लिये किसी अन्य सावन की अपेक्षा नहीं होती, तो फिर ऐसा क्यों नहीं होता ? " इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कारिका (६) द्वारा यह दिया गया है कि आत्मा का स्वात्मकज्ञान से 'आई जाने प्रकार का ज्ञान होता है व अब उस प्रकार के थान की जन्म देनेवाली उसकी महक से दो संपन्न होता है, फिर भी उस शक्ति से युयुक्ति के समय उक्त वन को उत्पत्ति नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय यह शामात्र रणरूप से आवृत रहता है और उक्त दोष से भमानशक्ति ही उक्त ज्ञान के उत्पादन में सक्षम दोनों है । सुषुभि के समय उस भावरण का निवृति का कोई साधन उपस्थित होने से उस भबूत शक्ति द्वारा उक्त ज्ञान का उत्पादन संभव नहीं हो सकता |
[मदाभण
उपास लिये स्वप्रकाशा
छोडने की सलाह पूर्वप
यदि
कहा जाए कि आत्मा की स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप सामने पर अब सुपुप्ति भावि के समय भी उस के ग्राम की आपत्ति होती है तो उसे स्वप्रकाश शानस्वरूप सामने के आम का परित्यागत है, प्रयोंकि जब वह स्थप्रकाश न होगा तो विषय श्री उनका ज्ञान आदि किसी न किसी प्रमाण के व्यापार से ही संपन्न होगा, फल: पुनि के समय किसी प्रकार का व्यापार न होने से उस समय के कान की आप िन हो सकेगा ।
'आमा स्व
स्वरूप नहीं है किन्तु ज्ञानान्तरय है। इस पक्ष में भी यह