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________________ २० स्था .. टोका दिन पतेन 'अईस्वाद्याकारस्याप्यालीफत्वमेव, एफस्य विज्ञानस्य नानाकारभेवाऽयोगादः तदुक्तम् किं स्यात् सा चित्रकस्यों न स्यात् तस्या मतावपि । यदीय स्वपमर्थानां रोचते तत्र के यषम् ।' इति माध्यमिको तमप्यपास्नं, स्वरूपानुभवलक्षणार्थक्रियया वानस्येव तदाकारस्य अर्थचित्रताधोनाया ज्ञानचित्रनाथाध सिद्धरिति । अधिकमग्रे विवेचयिष्यने ||८५॥ समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि जिस काल में मनुष्य को भहमाकारः वासना उद्युत होती है उसी काल में अस्य मनुष्य को नीलाकार वासना भो मधुर होती है, किन्तु अहमाकार वासमा के प्रबोधन काल को नीलाकार' यासना का प्रबोधक ने मानने पर यह बात न बन सकेगो, फलसः पक मनुष्य को आई ममामि' यह ज्ञान जय होगा तब अन्य मनुष्य का 'भयं मील.' इत्यादि ज्ञान महो सकेगा. जब कि ऐसा होना समान्य है। ___ "जिस काल में जिम मनुष्य को शमाफार वासना का परोध होता है घर काल उस मनुस्य की नीलाकार वासना का उड्योधक मही होना' इस प्रकार का नियम मानमे पर उक्त वीष मली तो सकता'- यह कहना भो संगत नहीं हो सकता क्योकि काल विशेष से बासनाधिशेष का उत्योधन मानने की अपेक्षा काविशेष से प्रकार विशेषतपन्नशान की उत्पत्ति मान लेने में अधिक औचित्य होने के कारण विभिन्नाकारमान की जापत्ति के लिए विभिन्नाकारवासमा को कल्पना धनापश्यक छो जायगी। उक्त चर्चा के आधार पर अन्य मतों को अपेक्षा अन्नदर्शन की या मा पना ही अधिक मनोरम प्रतीत होता है कि अर्थ और ज्ञान दोनों की स्वतन्त्र सना है तथा तदर्याकारमान की उत्पत्ति नसद भर्थ के सम्मिधान से सनद अर्थ को क्षयोपशमप वासना के उदयुद्ध बोमे पर सम्पन्न होती है। महत्वाचाकागळीकत्ववादिमाममत का वाहन इस प्रसंग में पौच माध्यमिक का कहना है कि- "ज्ञान में प्रतीत होमेवाले भवन्य भाव आकार भी ज्ञानभिग्न अर्थाकार के समान लीक हो है, उनकी सत्ता में भी कई प्रमाण नहीं है, क्योकि असे पक अर्थ में माना साकारों का होना युक्तिविक्षस है, उसी प्रकार एक शान में भी नाना गाकार का होना युक्तिया । इस विषय में मामिक की कि स्मात् साल कारिका मननीय है, उसमें यह कहा गया है कि - 'क्या एक वस्तु मैं पिता-मामायाकारसम्पन्नता हो सकती है? यदि नही तो एक बुशि में भी वह कैसे संभव होगी? और यदि विषशा अर्थी को मखमी हैमर्थात् मार्थ की मित्रता गाभा है तो असा निरोध करने वाले हम कौन है अर्थाम् हमारे द्वारा उसका अस्वीकार मसंगत है, किन्तु सत्य है कि एक वस्तु की चिता के समर्थन में कोई मुक्ति नहीं है। मनः विधाकारज्ञान की कहाना भी निराधार होने से साकार विज्ञान का अमितस्य न मानकर सभ्यता कोही नभ्य रूप में स्वीकार करना उमित है।"-इल नंबन्ध में प्रकृत प्रथकार का आलोचन गrtfक प्रक्रिया से ही घस्तु की विधि होती है जिस प्रकार मान के स्वरूपानुभषरूप भक्रिया ने शान की सिनि होती है उसी प्रकार लामाकार के गनुभयरूप मफ्रिथा से जानाकार की और भषि
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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