SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाश्त्रवासिमुच्चय-स्तक र प्रलो. १.६ किच, प्रारजन्म कृतानां नानाकर्मणां न योगोश्टेश्यत्यमस्ति, न च ततस्सज्जन्यफकम् इति योगरूपमायसिस्थाऽनाशकत्वं विना न निवाडः । न च योगात कायपुर द्वारा भोग एपेति साम्मत, नानाविधानन्तपारीराणामेकदाऽसम्भवादिति स्पष्ट पाया हो। न च योगस्य प्रायश्चित्तत्वस्वीकारे भषतामपसिद्धान्त इति वाच्यम्, "सम्वा वि य एषमा पायपि भवन्तरकडाण | पावाणं कमाणं " [पञ्चाशक १६-२] इति अन्धकतैवान्पप्रोक्तत्वा।। अपि व कार्यक्षमा पिसव मशोना जतिमा ज बसविता, दु:खध्वंसस्य पुरुषप्रयत्न विनय भारात, इत्यपि विवेचित न्यायालोके', इत्यतोऽपि कर्मसिद्धिः । अपि च लोकस्थितिरपि कर्माधीनव, अन्यथा ज्योतिश्बकादेर्गुरुत्वादिना पासादिप्रसाद, न चेवराधीनर, तरूप निम्स्यत्वादिति किमतिविस्तरेण ! मरीचिकच्चैः समुदचनीय जनोक्तिमानार्यपष्टसिदिः । निमीत्य नेत्रे तद सौ वराकश्चाचिकः श्रयतां दिगन्तम् ॥१०।। इसके अतिरिफा विचारणीय बात यह है कि नक्रियो में जो समाधिन को उदयता होती है यह मनप्रायश्चितन्य कर्मनाशेच्छाविषयत्वरूप ही होती है, अर्थात् जिस पर्म से उत्पन्न NET को नाश करने की इच्छा से जो प्रायश्चित किया जाता पह कर्म उस प्रायश्चित्त का उद्देश्य होता है, तो फिर प्रायश्वित से नाश्य भारत को मान्यता भी प्रदान की जायगी, तब उक्त गति से किया प्रायवित्त का उपप कैसे हो सकेगी। भतः क्रियाओं में प्रायश्चित यो उद्देश्यता को उपपनि के लिये भी माट की सिधि अपरिहार्य है। योगन यास से अराद्ध तसरी पाल यह है कि पूर्वमा को पिविध कियार्य इस जन्म में मुमवारा किये भाने वाले 'योग' का रुप नाही कोसो, frतु योग के पश्याम् उन क्रियामों का फल मो न हाता, तो फिर यह पान योग की पूर्वम की क्रियाओं से उत्पन्न भएका नाशक माने बिना कैसे बन सकती है। क्योंकि उद्दश्यतासम्बन्ध से उन क्रियाओं में योगात्मक प्रायश्चित के न रह से वे क्रियाएँ पायपियसाभाषपाली हो जाती है। पता प्रायश्चित्ताभाषयाली क्रिया को फलमानक मामने से उक बात की उत्पत्ति नहीं हो सकी। यह फलना कि-'योगो योगपल से रमित कायस्यूर- अनेक काया से पूर्वजन्म की क्रियामों का फलमोग कर लेता है-ठंफ है कि एक साथ एक गारमा को अनेक प्रकार के अमन वारोग हो ही नहीं सकते, क्योंकि पहले ना भारमा के पास उन मनः शरोसे के साथ सम्पपीने के हेतुभून चित्र अनन्त अटए ही नहीं हो उस रोरों से सम्बन्ध हो म होने पर उनके द्वारा फलभोग कैसे हो सकेगा । अनन्त शरीरों साथ सम्बन्ध न हो सकने की पात 'पायानाक' नामक प्रन्थ में स्पर की गयी है। योग को प्रायविसरूप मानने पर जैन धान्त होगा' यह भी नहीं कहा जा सकता पोकि 'सव्वा पिन पधज्जा.' इत्यादि यवना से प्रस्थकार दी मे समस्न योगों को जम्मातर के शो और सभी कर्मों का प्रावित कहा है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy