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स्याक• ढोका व दि. वि. नन्तरं यापारसत्वेऽपि प्रागभावापावा र भोगा नुत्पचिरिति किं नदमावादिनिचेक्षेन ! प्रापचिवविधितामध्ये तु विजातीयप्रायश्चित्तानो रिजातीयादृष्टनाशकत्वमेवोचितम,
आगमासंकोचालायवारच । न चामभोगमागमा विशिष्टोक्तध्यसाधारतासम्बन्धेन क्रियाहेतुस्वमरणपास्लम, विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरसाच्च । किश्च तत्ततिक्रयागी तसस्प्रायश्चित्तोश्रयत्वमपि तत्कियानन्यकर्मनाशेच्छाविषयतयैव सुप्छु नि हति, नाम्पमा, इस्यतोऽप्पदृष्टसिदिः । चिमत्ताभाव के यदले तमामायश्चित्ताभाव को किया का विशेषण बनाने से मचवा तत. रमायश्चितविशिष्ठ अवतफलकामध्यसातरिक्त खम को किपा का पागार मानने से परमोधन होगा -यह कहना ठीक नहीं हो सकता. गोंकि ऐसा करने
प र शानी की क्रिया से भोग ही शान टोपी । 'प्यारभूत कियाध्यस में तरबझानिक्रिपा ध्वंसातिरिका विशेषण मेने से यह भी नोष नहीं होगा- यह करने से भी निस्तार नहीं हो सकता, क्योंकि क्रियाचस को किया का व्यापार मानने पर किया ध्वस का कमी अन्त न होने से क्रियाफल का भी अन्न न हो सकेगा । फलतः किसी शुम किया से कमी स्वर्ग मिल जाने पर स्वरीत मनुष्य की स्वरों से युति कमोन हो सकेगी। 'बरम मोग के बाद ग्यापार रहने पर भी अग्रिम भोग का प्रागभाषरूप कारण म बोने से अप्रिम भोग की आपत्ति न होगी-बह कथन भी ठीक नहीं हो सकता, क्योकि पागमाय के प्रभाव से फलानुपति का समर्थन करने पर प्रायश्चित्तस्थल में भी पागभाव . भभाष से ही कलारसि का घारण हो जाने से क्रिया में प्रायश्विसावि के मभाष का निवेश व्यर्थ हो जायगा | प्रायश्चिम विधायनशास्त्र की सार्थकता के मनुरोध से क्रिया में प्राय दिसाभाव के नियेश का मौचित्य समाने पर तो या कहना भधिक उचित होगा कि 'विजाती। प्रायश्चिन विधातीय अइष्ट का माशक होता है, क्योंकि इस पक्ष में गागम संकोच भी नहीं करना परता और पूर्व पक्ष की अपेक्षा लायब भी होता है।
पूर्वपक्ष में मागम का संकोच इस प्रकार करना पड़ता है कि शास्त्र सामान्यत: कर्ममात्र को फलामक पताता है, किन्तु पूर्वपक्ष के अनुसार प्रायश्चित्तामाक्वरको फल का जनक मानने पर छात्र का प्रायश्चित न किये गये कर्म में संकोष करना होगा । लाग्य इस प्रकार है कि सिहारनपक्ष में निर्षिशेषण महर क्रिया का बार होता है, किन्तु पक्ष में तत्तन्मायश्चित्तविशिष्ट अष्टफलककर्मध्वंस से एवं नयवानिक्रियाप्रयंस से गतिरिक्त झिपाध्यस द्वार होता है, ना सिचान्सपप्त की अपेक्षा पूर्णपक्ष में गौरव बोष स्पष्ट है।
उक्त गौरव के कारण भी यह कल्पना भी समीचीन नहीं हो सकती कि-'परम भोगप्रागभाषायश्मिध्यसाधारता सम्मान से क्रिया कालाम्मरभावी फल का जनक होती है। क्योंकि उक्त गौरवो है ही, साथ ही चरमभोगप्राममाय और स्वयंस के विशेषणविशेप्यभाष में यिनिगमक न होने से स्वयंसपिशिएयरमोग गमभायाघारतासम्बन्ध से भी किया को फल नकर की आपत्ति होगी।