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________________ स्या० क० टीका व हिं० वि० अथ चेतनाया: स्वाऽभिन्न व्यक्तिरूपा तज्जनकताख्या शक्तिः स्वरूपतो निर्विकल्पकविषयाऽपि तद्रूपेण सविकल्पकागोचर इति न दोष इति चेत् १ न, व्यक्तचेतनाया अप्युत्तरचेतनाजनकतया शक्तिरूपेणायोग्यत्त्वप्रसङ्गान् । चेतनात्वेनैव सा योग्या न तु शक्तिरूपेणेति चेत् ? प्रत्येकदशायामपि चेतनात्वेन योग्यत्वं, चेतनावशून्या चेतना वा प्रसजेदिति महत्संकटम् ॥३४॥ शक्ति और चेतना के पेक्यपक्ष में उक्त भापत्ति के भय से यदि दोनों में नानात्व माना जायगा तो यह भी ठीक न होगा, क्योंकि नानात्व मेवरूप है और मेद कमी अमेव पेश्य के साथ नहीं रहता अतः दोनों में पूर्णरूप से मेद मानना होगा, फिर उसका फल यह होगा कि चेतनाशक्ति भूतों का धर्म भले हो पर स्वयं चेतना भूतों का धर्म न होफर किसी अन्य का धर्म हो जायगी। कहने का आशय यह है कि भूतचैतनिक को अवयवाक्यविभाध-अवयवों से भिन्न अवयवी का अस्तित्व मान्य नहीं है, अतः प्रत्येक असंहतभूत से शरीरात्मक संहतभूत समुदाय का भेद नहीं है, तो असंहत भूत में जब चेतना को शक्ति ही रहती है किन्तु स्वयं चेतना नहीं रहती, तब शरीरा. त्मक संहतभूत समुदाय में भी चेतना को शक्ति ही रहेगी, स्वयं चेतना न रह सकेगी अतः चेतना को भूतों से भिन्न ही किसी पदार्थ में माश्रित मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि-"चेतना की जनता ही घेतना शक्ति है, और वह जनकता भी स्वरूपयोग्यसारूप है जो अपने पाश्रयभूत व्यक्ति से मभिन्न है, इस प्रकार चेतनाशक्ति अपने आश्रयस्वरूप प्रत्येक असंहतभूत से भिन्न होने के कारण अपने आश्रय के प्रत्यक्ष के समय अपने आश्रय के रूप में प्रत्यक्ष हो जाती है, किन्तु इसका यह प्रत्यक्ष उसके निजीरूप चेतनाजनकताव अधवा चेतनास्वरूप से उसका प्राइक म होने से निर्विकल्पकता होता है. सविकपकरूप नहीं होता। अर चेतनाशक्ति के आधयरूप विभिन्न भूत जप पकत्र हो कर शरीर के रूप में संहत हो जाते हैं तब उनको चेतनाशक्ति चेतना के रूप में परिणत हो जाती है, और उस दशा में चेतनात्यरूप से उसका सधिकल्पक प्रत्यक्ष भी सुघट हो जाता है"-तो यह कथन ठीक नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार असंह तभूत से अध्यक्तचेतना व्यक्तचेतना का जनक होने से चेतना जनकता के रूप में चेतनाशक्ति है, और भूनों की असंहतअरस्था में अपने निजरूप में सवकल्पक प्रत्यक्ष के अयोरप है उसी प्रकार संहतभूत में व्यक्तयेतना भी अपने अनम्तर होने वाली व्यक्तवेतना का अनक होने से चेतनाजनकता के रूप में चेतनाशक्ति कहो मायगी, और चेतनाशक्तिरूप होने से विकल्पक प्रत्यक्ष के अयोग्य होगी और उसका परिणाम यह होगा कि भूनों के शरीरात्मक संघात में भी चेतना को सषिकल्पकउपलब्धि न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-"व्यक्त और अध्यक्तरूप में चेतना की कल्पना का आशय यह है कि चेतना में दो धर्म होते हैं एक चेतनात्य और दूसरा शक्तिरूप-शक्तित्व । इन दोनों धर्मों में चेतनात्व धर्म ऐसा है जिसके द्वारा चेतना प्रत्यक्षयोग्य होती है, और शक्तिरूप धर्म ऐसा धर्म है जिसके द्वारा चेतना प्रत्यक्ष के अयोग्य होती है। अत: शरी
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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