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________________ ११० शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १. अनभिव्यक्तत्वान्नोपलभ्यत इत्याशय दूषयति 'अनमिव्यक्तिरिति---- मूलम्--अनभिव्यक्तिरप्यस्या न्यायतो नोपपद्यते । - आवृतिर्न यदन्येन तस्वसंख्याविरोधतः ।।३।। अनभिव्यक्तिरप्यस्याः-चेतनायाः, नान्यत: परमार्यविचारात , 'नोपपद्यते' नाऽबाधिता भवति । 'यद यस्मादेतोः, प्रतिबन्धकसमवधानरूपाऽऽयतिरत्रानभव्यक्तिरमिमता, नान्या, अनिर्वचनात् । प्रतिबन्धश्चात्र नान्येन भूतातिरिक्तेन, अतिरिक्तप्रतिबन्धकाभ्युपगमे 'पृथिव्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वम्' इति स्वसिद्धान्तभ्याकोपात् ॥३५॥ भूतानामेव केनचिद् रूपेणावारकत्वं भविष्यतीति, अत्राह 'न चासावि'तिमूलम्--न चासौ तत्स्वरूपेण तेषामन्यतरेण वा । व्यजकल्वप्रतिज्ञानाद नावृतिय॑जकं यतः । ३६॥ रात्मकभूतसंघात में विद्यमान व्यक्तचेतना मानेननर होने वाली व्यक्त चेतना का जनक होने से यद्यपि शक्तिरूप है तथापि चेतनात्वरूप से उसका प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्येक असंतभूत में रहने थाली अध्यक्तचेतना मी चेतनात्वरूप से प्रत्यक्षयोग्य हो जायगी । अथवा उस चेतना को चेतनात्व से शून्य मानना पडेगा । इस प्रकार यह पक्ष इस महान संकट से प्रस्त होने से त्याज्य प्रतीत होता है ॥३४॥ ___(अनभिव्यक्तरूप से चैतन्य भूतों में नहीं हो सकना) ३५वीं कारिका में इस बात का खण्डन किया गया है कि 'प्रत्येकअसंहतभूत में भी चेतना रहती है किन्तु अनभिव्यक्त होने से उस दशा में उसकी उपलब्धि नहीं होती'___ असंहतभूत में चेतना की अभिव्यक्ति का उपपादन नहीं किया जा सकता, क्यों कि 'न्याय -परमार्थविचार से उसका समर्थन नहीं हो पाता । उसका कारण यह है कि चेतना को जो अभिव्यक्ति मानी आयगी उसे चेतना का आवरणरूप ही मानना होगा, अर्थात् असंहतभूत में चेतना अभिव्यक्त होती है, इस कथन को व्याख्या यही करनी होगी कि असंहतभूत में चेतना आवृत होती है । चेतना की अनभिव्यक्ति का इससे भिन्न कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि इससे भिन्न अर्थ का निर्वसन अशक्य है। इस प्रकार चेतना की अनभिव्यक्ति का अर्थ है चेतना का भाचरण और चेतना के आवरण का अर्थ है चेतना में उसकी अभिव्यक्ति के प्रतिबन्धक का समवधान । अब प्रश्न यह उठता है कि यह प्रतिबन्धक क्या है जिसका समवधान होने से असंहतभूत में घेतना की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती १ विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि घह प्रतियन्धक भूतों से अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि भूतों से अतिरिक्त यदि किसी प्रतिबन्धक को मान्यता दी जायगी तो तत्त्वसंख्या का विरोध होगा अर्थात् चार्वाकमतानुसार पृथिवी जल तेज और वायु ये बार हो सत्त्व है इस सिद्धांत का व्याघात होमा ॥३५॥ ___३६वीं कारिका में यह बात बतायी गयी है कि भूतों को भूतगतचेतना का आधरणकारी नहीं माना जा सकता । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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