SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..स्था० १० टीका व हिं. वि. न चासौ आवृतिः, 'तत्स्वरूपेण' भूतत्वादिना भूतस्वरूपेण, न वा 'तेषामन्यतरण' पृथिवीत्वादिना पृथिवीजलान्यतरत्वादिना वा । कुतः' इत्याह 'व्यजकत्वप्रतिज्ञानात्' चैतन्यसाक्षात्कारजनकत्वस्वोकारात् । तत्त्वेऽप्यावृतिजनकत्वमस्तु, अत आइ-यतो व्यजकमावृतिः आवारकं न भवति, एकस्य चैतन्यसाक्षात्कारजनकत्वतजनकीभूताभावप्रतियोगित्वयोविरोधादिति भावः ॥३६।। कायाकारपरिणामाऽभाव एवाऽत्राऽऽवृतिः स्याद, अप्राह 'विशिष्टे 'तिमृलम्-विशिष्टपरिणामाऽभावोऽपि यत्राऽऽवृतिन वै । भावताऽऽप्तेस्तथा नाम व्यञ्जकत्वप्रसङ्गतः ॥३७|| विशिष्टपरिणामाऽभावोऽपि, हिः पादपूरणे, वै-निश्चितम्, अत्र भूतचेतनायाम् , (भूतों में रहा हुआ चैतन्य का आवरण भूतपदार्थ नहीं हो सकते ।) भूतों को चेतना का वारक अर्थात् चतमा की अभिव्यक्ति का प्रतिबन्धक नहीं माना जा सकता, क्योंकि पेसा मामने पर यह प्रश्न ऊठेगा कि भूत यदि चेतना के आधारक होंगे तो उन्हें भूत के सामान्यधर्म भूतस्वरूप से चेतना का आवारक माना जायगा, या भूत के विशेषधर्म पृथिवीत्व आदि अथवा पृथिवोजलान्यतरत्व आदि रूप से चेतना का आधारक माना जायगा ! विचार करने पर ये दोनों ही पक्ष उचित नहीं प्रतीत होते, कपों कि शरीरात्मकभूतसंघात में चेतना को जो अभिव्यक्ति होती है उसके प्रति शरोरात्मक संघात अपने घटक पृथिवी आदि भूतों के सामान्यधर्म भूतत्व तथा भूत के विशेषधर्म पृथिवीत्व आदि पधं पृथिवीजलान्यतरत्व आदि रूपों से ही कारण होता है। तो फिर जिम रूपों से पृथिव्यादिभूत स्वगत चेतना के व्यजक होने हैं, उम्हीं रूपों से उन्हें चेतना का आवारक यानी धेतना की अभिव्यक्ति का प्रतिबन्धक कैसे माना जा सकता है? ___ यदि यह कहा जाय कि-"भूतत्यआदि रूपों से भूतों को शरीरात्मकसंघात में चेतना का व्यन्जक और शरोरानात्मकभूतों में उक्तरूपों से भूतों को चेतना का आधारक मानने में कोई हानि नहीं है तो यह कथन ठीक न होगा, क्योंकि जो जिस रूप से जिसका व्यन्जक होता है , उस रूप से वई आवारक नहीं हो सकता; कारण चेतना की व्यजकता का अर्थ है चेतना के साक्षात्कार की जनकता; और चेतना की आवारकता का अर्थ है चेतना-साक्षात्कार के जनक अभाव को प्रतियोगिता । और ये दोनों एक दूसरे का विरोधी होने से एक व्यक्ति में नहीं रह सकते । कहने का आशय यह है कि भूतों को चेतना का आवारक सभी माना जा सकता है जब भूतत्व आदि हयों से भूतो का अभाव चेतना के साक्षात्कार का जनक हो, और यह तभी सम्भव है जव भूत चेतना-साक्षात्कार के जनक न हो; क्योंकि भूत और भूत का अभाव ये दोनों एक साथ न रह सकने के कारण चेतना-साक्षात्कार के जनक नहीं हो सकते ॥३६॥ ३७चीं कारिका में शरीर के आकार में भूतों के परिणाम का अभाव ही चेतना का आधारक है' इस मत का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy