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________________ १०८ शास्ववार्तासमुख्यय-स्तषक १ कुतः ? इत्याह 'शक्ती'तिमूलम-शक्तिचैतन्ययोरैक्यं नानात्वं वाऽथ सर्वथा । ऐक्ये - नये नानालस्य सा यतः ॥३४॥ शक्तचैतन्ययोः सर्वथा भेदाऽसहिष्णुतयेक्यम् अभेदः, अथेति पक्षान्तरे, सर्वथा अभेदाऽसहिष्णुतया नानात्वं भेदः ? आधपक्षे दोषमाह-ऐक्येअभेदे, साशक्तिः चेतनेव । ततश्च यदि योग्या सा, तदा प्रागप्युपलब्धिप्रसङ्गा, यदि च न योग्या तदा पश्चादप्यनुपलब्धिप्रसङ्ग । द्वितीयपक्षे दोषमाह नानात्वे-भेदे, सा-चेतना, अन्यस्य स्याद्, न भूतानां, तदन्यशक्तिरूपत्वात् तेषाम् । यत एवं ततो न तदिति योजना । भूत के साथ इन्द्रिय का सत्रिकर्ष होने पर उसमें चेतना के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती, कि असंहत भूत में चेतना जिस रूपसे रहती है, उस रूप से यह प्रत्यक्ष योग्य नहीं है। प्रत्यक्ष योग्य तो यह तब होती है जब जसे व्यक्तरूप प्राप्त होता है, और भूतों के शरीरात्मक संघात की अवस्था में ही उसे व्यक्त रूप प्राप्त होता है । यदि यह कहा जाय कि "असंहत भूत में चेतना को उपलब्धि नहीं होती अतः उसमें चेतना होती ही नहीं"-तो यह कहना ठीक न होगा, क्योंकि संहतभूत में चेतना की उपलब्धि को संगत बनाने के लिये असंहतभूत में शक्तिरूप में उसका अस्तित्व मानना आवश्यक है और जब शक्तिरूप से असंहतभूत में उसका अस्तित्व युक्तिसम्मत है तब अनुपलब्धि मात्र से उसमें उसका अभाव मानना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि अनुपलब्धि मात्र से अभाव को सिद्धि नहीं होती, किन्तु योग्यानुपलब्धि से अभाव की सिद्धि होती है। असंहतभूत में चेतना की अनुपलब्धि है, योग्यानुएलब्धि नहीं है. क्योंकि असेहतभूत में अवस्थित चैतन्य उपलब्धि के लिये अयोग्य होता है। भूतचैतन्यवादियों के इस कथन के उत्तर में अन्धकार का कहना यह है कि चेतना के व्यक्त और अव्यक्त रूपों कि कल्पना निर्मूल होने से भूतों में उसके अस्तित्व का समर्थन करना शक्य नहीं है ॥३३|| थेतना के दो रूप हैं एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त । अव्यक्तचेतना को घेतमाशक्ति मौर व्यक्तचेतना को चेतना कहा जाता है। चेतनाशक्ति प्रत्येक असंहतभूत में राती है, और चेतना स्वयं संहतभूतसमुदाय अर्थात् शरीर में रहती है। पूर्ष कारिका में इस मान्यता के स्वण्डन का संकेत किया गया है, ३४ वी कारिका में उसी की यक्तियों धारा उपपत्ति और पुष्टि की गयी है, जो इस प्रकार है शक्ति और चेतना न दो रूपों में चेतना को कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त कल्पना करने पर यह प्रश्न ऊठेगा कि शक्ति और चेतना में पेक्य या नानात्व। यदि ऐक्य माना जायगा तो ऐक्य तो मेद के साथ रहता नही, मतः दोनों में पूर्णरूप से ऐक्य मानना होगा । फलतया चेतनाशक्ति और चेतना में कोई अन्तर न होगा। अषं यदि चेतनाशक्ति योग्य होगी तो भूतों का शरीरात्मकसंघात होने के पूर्व भी पोभन में उसकी उपलव्धि होने की आपत्ति होगी. और यदि वह अयोग्य मोमीनो उससे भिन्न होने के कारण चेतना भी अयोग्य होगी, जिसके फलस्वरुप शरीरात्मक संघात के बाद भी उसमें चेतना की उपलब्धि न ही सकेगो।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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