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स्या० का टीका सहि मि०
१०७ मूलम्-यदीयं भूतधर्मः स्यात् प्रत्येक तेषु सर्वदा ।
उपलभ्येत सत्त्वादि-कठिनत्वादयो यथा ॥३२॥ यदि इयं चेतना, भूतधर्मः स्यात, तदा 'तेषु भूतेषु, प्रत्येकम असङ्घाताबस्थायां, सर्वदा=इन्द्रियविषयसम्प्रयोगकाले, 'उपलभ्येत', भूतसामान्यधर्मत्वे समादिवत् , भूतविशेषधर्मत्ये च कठिनत्वादिवत् , योग्यत्वादिति भावः, मध्यगताऽऽदिपदाद विभागः प्रतीयते ॥३२॥
पराभिप्रायमाइ 'शक्ती'तिमूलम्-शक्तिरूपेण सा तेषु, सदाऽतो नोपलभ्यते ।
न च तेनापि रूपेण सत्यसत्येव चेत् ? न तत् ॥३३॥ सा-चेतना, तेषु भूतेषु,सदा-असङ्घातावस्थायामपि, शक्तिरूपेण वर्तते । अतस्तदा नोपलभ्यते, व्यक्तिरूपाक्रान्तस्यैव योग्यत्वात् । न च सेनापि प्रसिद्धन शक्क्याख्येनापि रूपेण सती चेतना असती । न ह्यानुपलब्धिमात्राभावः सिद्धयति, किन्तु योग्यानुपलब्ध्या । न चात्र साऽस्ति, तत्र तत्र्यावच्छिन्नायास्तस्या अयोग्यत्वादिति । समाधत्ते इति चेत् ? न तत्-पूर्वोक्तम् ॥३३॥ पाश्रय "आत्मा" नाम का कोई अन्य पदार्थ नहीं है, यह अनारमवादी विद्वानों का पक्ष होने से आत्मवादियों का विपक्ष है। प्रस्तुत प्रलोक ३२ में इस विपक्ष के वाधकतर्फ का लिक किया गया है, जो निम्नोक्त रूप से शातव्य है।।
चेतना यदि भूतपदार्थ का धर्म होगी तो वह प्रत्येक असंहत भूत में भी रहेगी। फलतः शरीरात्मक संघात से भिन्न जिस किसी भी भूत के साथ जब भी इन्द्रिय का सन्निकर्ष होगा तब उसमें चेतना के प्रत्यक्षानुभव की आपत्ति होगो । यदि उसे भूतसामान्य-सभी भूतों का धर्म माना जायगा तो सत्ता आदि के समान समी भूतों में उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी, और यदि उसे भूत विशेष -गिने चुने भूतों का ही धर्म मामा आयगा तो काठिन्य आदि के समान गिने चुने भूतों में हो उसके प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि 'उसे भूतों का अतोन्द्रिय स्वभाव मान लेने पर यह दोष नहीं हो सकता'-तो यह कहना ठीक न होगा, क्योंकि शरीरात्मक संघात की अवस्था में उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने से वह प्रत्यक्ष योग्य धर्म है। लोक में सत्व और कठिनत्व के मध्य में आनि शम्न को रखकर भतसामान्य और भविशेष के धर्म रूप में दो प्रकार से चेतना की अनुभूति की आपत्ति का संकेत किया गया है ।।श्या
(शक्तिरूप से प्रत्येक भूत में चेतना के अस्तित्व की शंका) प्रलोक ३३ में भूतचैतम्यवादी के अभिप्राय का उल्लेख कर उसका समाधान किया गया है, जो निम्नोक्त प्रकार से हातव्य है।
भूत चैतन्यवादियों का कहना है कि "चेतना प्रत्येक असंइत भूत में भी राती है, किन्तु असंहत भूत में शक्तिरूप से--अव्यक्तरूप से रहती है । इसलिये मसंहत