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शास्त्रवासिमुपप-रतबक १ महो० ५. स्थूिलाब में निष्कारणसामापति के परिवार का प्रयास यदि यह कहा जाय कि-'स्यूल वीखने वाले गणुकत्रसरेणु मानिनग्य मारों से मिसमोर येही स्थूलत्व-भाव के उपादान कारण है, अतः स्थूलत्ल भाल-उपादान हीम नहीं है। इस पर यह कहना कि-शान का भर्थ जानकारी होता मही है किन्तु ज्य-मात्रय से पृपा भिन्न होना है और यही असत्व का नियामक है, मप्तः स्थूलप को इश्य से प्रयक मानने पर उसका असत् हो जाना भनिवार्य
अषित नही हो सकता, क्योंकि उपादामदीनता से भिन्न उक महसमय में मसाल की प्रयोजकता असिख है।-स्थूलाष को वध्य से भिन्न मामने पर मानपविशेष में उसकी सस्पति निश्चित न हो सकेगी. यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि 'समवाय सम्बन्ध से जयमायमात्र के प्रति ताम्यसम्पन्ध से भ्य कारण होता है इस कार्यकारण भाव से वष्य में अन्यभाष की उत्पनि का नियन्त्रण होता है, स्थूलप भी अग्य: भाष है अत: इसकी आपत्ति का नियन्त्रण भी इस कार्यकारणभाव के द्वारा हो सकता है। 'समी वन्धों में धूप की उत्पत्ति न होकर स्थूल दिखने वाले वठयो में ही उसकी उत्पत्ति हो' इस प्रकार का नियन्त्रण भी समवायसम्बन्ध से स्थूलत्व के प्रति भाभिम अविभुवघ्य को तादात्म्यसम्बन्ध से कारण मान कर किया जा सकता है. अतः इम्प से पृषक होने पर भी स्थूलस्व नियत समय पयं निग्रत प्राश्रय में हो उत्पन्न होकर मस्तित्वलाभ कर सकता है, सर्वत्र और सर्वत्रा उसको उत्पत्ति का मतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता ।'
[समवाय अमान्य होने से यह प्रयास अनुचित ] तो यह कहना ठीक नहीं है क्यो कि युक्ति मोर प्रमाण न होने से लमयायसंबध असिस, भतः सप्लो माधार पर उक्त कार्यकारणभाष की रुपाना सम्भय न होने से उसके द्वारा स्थूलत्य की उत्पत्ति का नियन्त्रण भोर उसके अस्तित्वलाम का समर्थन नहीं किया जा सकता 1 दुसरी मात यह है कि उनका कार्यकारणभाष मानने पर उसमें बारा अन्यभाष की ही उत्पत्ति का नियन्त्रण होगा. यंस की उत्पत्ति का नियन्त्रण न हो सकेगा. षयोंकि त अमाषात्मक होने से समधामसम्यम्ध से नहीं उत्पन्न हो सकता, अतः जन्यमात्र का आश्रप के साथ अपृथग्भाय अमेव असा सम्बन्ध मानकर अपरभाषसम्बन्ध से अन्यामात्र के प्रति तावात्म्य सम्बन्धले दृष्य को कारण मानना ही उचिमोंकि इस कार्यकारणभाष से अन्यभाष के समान ध्वस की भी उत्पमिका नियन्त्रण हो सकता है और इस प्रकार का कार्यकारणभाष मानने पर स्थूलम्व गणुवों से भिन्न होने पर भवल प्रम्य से पुषभून होने के कारण उपादानहीन होगा और इस माने 'सत्' व्यवहार से अबरुप वंचित होगा, क्योंकि इस कार्यकारणभाव के रहते अभिन्न दृश्य का मस्तिष संभव न होने से स्थलाम को अमिम मानने पर उसका अवनत्व उगवानदीमय निषिधान है।
इस विषय का सौर विस्तृत विचार अन्यत्र किया है अतः यहां से इतने में ही समाप्त किया जाता है।