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________________ स्पा० ० टीका - कि. पृथगवयविन्यपि च मानमस्ति. अननसाश्यव्याविकल्पने गौरवात् । कि आता-जनावृतत्याभ्यामपि मिधत एवाऽश्यबी, ज्ञान प्रतिबन्धकसंयोग-सदभावरूपयोराप्रवासमायोमिन्मान संभावपापवियना--ताप रूपयोर्विनाभेदमसमवान्, स्वरूपाऽपविभूताया विषयताया अध्यायमित्याऽयोगान् | सकम्पत्वनिष्कम्पत्ताभ्यामपि तथा, शरीरस्य निष्कम्पत्ये 'पाणी न चलति' इत्पस्याऽपि प्रसङ्गात् । शरीरत्वादेखि पाणे: फर्माऽभावानबच्छेदफन्त्रादयमदोष' इति चेत् । न, चरणे कम्पशायामपि पाणी म पलति' इत्यनापत्तेः । न च वोगाव पाणों न घालति' इति न प्रतीयत इति वाष्यम् । तारबायोपकल्पने गौरवात् । पृषक् मक्यदी को सता मो मप्रामाणिक है। प्रस्तुत पर्या के सातत्य में यह पता देना प्रत्यात प्रासंगिक प्रतीत होगा किअवयवों से भतिरिक भषयवी की सत्ता में कोई प्रमाण भी नहीं है। प्रत्युत अपयषों से अतिरि मनात अषययी और अन सभी के समस्त पागभाव तथा यस भावि को कल्पना में होने वाला गौरव उसकी सिद्धि में स्पष्ट बाधक है। इसके मतिरिक्त भावृतत्व और अनावृतम्व से भी अवयवी की अतिरित पकव्यरुपता की सिधि बाधित होतो है। जैसे अटके किसी एकही भाग पर अब कोर भावरप बाला जाता है नए घट मावृत भी होता है और मनात भी होता है। मातरम मौर मनातस्य यह दोनों परस्पर विखा धर्म है, अतः घर को पक व्यकि मानने पर उसमें दोनों का सह समावेश नही हो सकता, किन्तु समावेश देखा जाता है, इसलिये घट को अश्यों से भिन्न पक भषयवीद्रव्य न मान कर अपययों का समूबरूप मानमा हो उचित है क्योंकि ऐसा मानने पर घर के भावून मात उभयमागरूप होने से पकड़ी काल में उसका आवृत और अनापत प्रतीत प्रोमा सम्भव हो सकता है। पदि यह मानायकि "मायूसत्य का अर्थ है उपलम्भ का पापकर्स और ममादुसाप का अर्थ है उकसपोग का मभाव, अतः संयोग के मध्यापयत्ति-प्रवाएकमे से एक ही समय पर आश्रय में अपने अभाव के साथ रहने के स्वभाव से युक्त बोने के कारण परमप्ति में आतत्व और अनावृतत्व के सरसमावेश में कोई सभा न हो सकमे में उसके द्वारा घट का समूहरूपता नहीं सिम हो सकती" सो पा ठीक नहीं है क्योंकि घरभावि के समान घट आदि के रूपभादि गुणों में भी भासत्व और भनाखूनस्व का व्यवहार होता है अतः श्रावृतत्व मौर अमावृताव को उक्तसंयोग और उक संयोगाभाषका न मान कर सातत्य को चानुषप्रायविषयत्वाभाव मोर ममा. प्रसस्व को चाक्षुषप्रत्यक्षविषयस्वरूप मानना होगा और विषयता विषयस्वरूप से अतिरिक्त न होने के कारण यिग्य के समान वाध्य युति हो होगो, अध्याप्यवृत्ति होगी, मतः स प्रकार के सातस्य और मतावृत्तव का एक व्यक्ति में समावेश संभव ने से माकृत पर्ष अमावृत वस्तु को पा षस्तुरूप न मान कर अनेक व्यक्तियों का समूह रूप मानना हो बित होगा।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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